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* मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ५०५
जिन-जिनकी सुन्दरता पर अनेक सुन्दरियाँ आसक्त हो जायें, फिर भी जिनके एक रोम में भी विकार जाग्रत न हो, ऐसे पुरुषों के उदाहरण विश्व में विरले ही हैं। सुदर्शन सेठ के देह का सौन्दर्य दिव्य और मोहक था, उसके सौन्दर्य पर मोहित होकर उसी के नगर की राजरानी और रूपरानी एक बार एकान्त पाकर सेठ से अपनी कामवासना शान्त करने की अनिच्छनीय याचना करती है, योगियों का योग विचलित हो जाय, तपस्वी तपोभ्रष्ट हो जाय; ऐसे भयंकर क्षण में भी कामवासना से अलिप्त, अविचलित रहकर सुदर्शन महाराज को आँख के इशारे पर नचाने वाली उक्त मोहनी-शक्ति को उत्तर देते हैं- “ राजमाता ! आप माता हैं, जगज्जननी हैं। जननी के हृदय पर शिशु का मुख होता है, हाथ नहीं। शिशु का मस्तक माता के चरणों में सुशोभित होता है। माँ ! आप तो अमरता की खान हैं, वात्सल्य रस पिलाइए और पीजिए। माँ, आपको कोटिशः वन्दन हो !” परन्तु रानी को वासना का नशा जोरदार चढ़ा हुआ था, सुदर्शन द्वारा दिया गया मातृत्वबोध सफल न हुआ। रानी के फेंके हुए पासे निष्फल हो गए। सुदर्शन की निश्चलता देखकर रानी का गर्विष्ट दिमाग सर्प की तरह फुफंकार उठा । वह जोर से चिल्लाई - " दौड़ो - दौड़ो ! यह बनिया मेरी लाज लूटने आया है।" सेठ पर आरोप लगा और झूठा होने पर भी सच्चा सिद्ध कर दिया गया । इज्जत मिट्टी में मिल गई, सेठ को शूली की सजा भी घोषित की गई। परन्तु सुदर्शन सेठ का एक रोम भी इस माया से कम्पित न हुआ। फलतः शूली उसके लिये सिंहासन बन जाय, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
माया का अर्थ मूर्च्छा करें तो भी सुदर्शन के लिये शूली का दण्ड घोषित किये जाने पर उसकी अपने शरीर पर मूर्च्छा नहीं थी । माया का अर्थ छल करें तो भी महारानी के छल के विरोध में उसने सत्य की ध्वजा स्पष्टतः फहराये रखी । माया का अर्थ भ्रान्ति करे तो भी रानी के सामने सुदर्शन अडोल और निर्भ्रान्त रहे, यों कहा जा सकता है। इस प्रकार शील की रक्षा करने में निर्मायी सुदर्शन सेठ का अद्वितीय दृष्टान्त है । इसी प्रकार शरणागत की रक्षा करने में क्षत्रिय-प्रण के पालन करने में अपने शरीर का बलिदान देने के लिए तत्पर निर्मायी मेघरथ राजा का दृष्टान्त प्रसिद्ध है।
“ रघुकुल रीति सदा चली आई, प्राण जाय पर वचन न जाई।”
इस कहावत को चरितार्थ करने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के प्रण - पालन का आदर्श चरित्र प्रसिद्ध है।
लोभरूप महाशत्रु पर विजय की प्रतीति कैसे हो ?
इतनी उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के बाद भी लोभरूप महाशत्रु को नहीं जीता, वहाँ तक सब काता- पींजा कपास के बराबर है। अतः ऐसे साधक के लिए लोभ की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की प्रतीति के लिए कहा गया- " लोभ नहि छो, प्रबल सिद्धि - निदान जो ।”
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