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४८० कर्मविज्ञान : भाग ८
प्रत्येक प्रवृत्ति की चौकी वफादार चौकीदार की तरह करेगा। नींद आए तो भी अन्तर में जागता रहेगा। ऐसे साधक पर स्वप्न में भी कुविचार आकर हमला नहीं कर सकते। ऐसे संयमी साधक के लिए गीता की भाषा में कहा है
“ या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः ॥”
- जो समस्त प्राणियों की रात्रि है यानी शयनकाल है, उसमें संयमी पुरुष. जागते हैं और समस्तं प्राणी जहाँ जागते हैं, वह द्रष्टा मुनि के लिए रात्रि समान है।
इसी प्रकार 'आचांरागसूत्र' में भी कहा गया है - " सुत्ताऽमुणिणो, मुणिणो सया जागरंति।"" अमुनि (असंयमी) जहाँ सोये रहते हैं, वहाँ मुनि ( संयमी ) सदा जाग्रत रहते हैं । अर्थात् संयमी पुरुष सोते हुए भी जागते हैं, बाहोश रहते हैं। उसकी ब्रह्मचर्य-साधना जगत् को संयम में रहने की प्रेरणा देती है । निष्कर्ष यह है कि उसका प्रत्येक विचार, वचन या कार्य जगत् को प्रभावित और परिवर्तन करने की क्षमता रखता है बशर्ते कि उक्त संयमी के मन-वचन काया की एकरूपता संयम के हेतुरूप हो।
संयम स्वरूपलक्षी होगा, तभी उसका सुपरिणाम दिखाई देगा
कई बार यह देखा जाता है कि कई प्रवृत्तियों में संयम को प्रामाणिक रूप से कारणभूत माना जाता है, फिर भी संयम का या साधक के संयमी जीवन का उपर्युक्त प्रभाव और परिणाम प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः प्रश्न यह है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में संयम का हेतु कैसे सुरक्षित रहे ? इसी के समाधानार्थ इस पद्य की पंक्ति में कहा गया है- “स्वरूपलक्षे जिन - आज्ञा - अधीन जो ।” अर्थात् वह संयम स्वरूपलक्षी हो तथा जिनाज्ञाधीन हो, तभी संयम के सुपरिणाम का अनुभव होगा। संयम स्वरूपावस्थान रूप साध्य का साधन है, साध्य नहीं
आशय यह है कि संयम के लिए संयम नहीं होना चाहिए । अगर ऐसा होगा तो पद-पद पर साधक तन, मन, वचन और इन्द्रियों की अनिवार्य आवश्यकताओं पर ब्रेक लगाता रहेगा, दमन करता रहेगा, जो अन्ततः मन-वचन-काया के लिए दण्ड हो जाएगा। इसलिए मोक्षलक्षी इस साधना में साध्य तो स्वरूपदशा है, संयम उसका साधन है। संयम को साधन के बदले साध्य मान लिया जाएगा तो आत्म-विकास और विश्व - वात्सल्य ध्येय रुक जाएगा, आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा जो स्व-स्वरूपावस्थानरूप मोक्ष है, उसके उपकरणों का यथेष्ट उपयोग न होने से मनुष्य जड़वत् बनकर रह जाएगा।
१. आचारांगसूत्र, श्रु. १
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