Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 505
________________ ॐ मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान * ४८५ * "यद्यपि मैंने अपने मन, वृद्धि, चित्त, हृदय, प्राण, शरीर आदि सब अपने वीतगगम्प आप्तपुरुप के चरणों में समर्पित कर दिये हैं, किन्तु वहाँ वीतराग की और मेरी कोई भिन्नता न होने से, म्वरूपदृष्ट्या एकता होने से मेरा कहलाने वाला 'आप्त' (वीतगग) भी 'मैं रूप है', वहाँ मैं-तू की भेददृष्टि ही नहीं रही। क्योंकि मुझे जो कुछ पाना है, वह मेरे में ही है। सिर्फ मैं अपने आप को भूला हूँ। चलना भी मुझे है और वह भी अपने पैरों से और पहुँचना भी मुझे अपने स्थल में है। वहाँ ‘पहले', 'आज' या 'वाद में ऐसे भेददर्शक काल का भी बन्धन नहीं है। गति या स्थिति में सहायक रूप तत्त्वों की भी आवश्यकता नहीं है। वहाँ केवल म्वरूप-स्थिति है। वाणी तो वहाँ पहुँच ही कैसे सकती है? यद्यपि वर्तमान में ऐसी दशा प्राप्त नहीं है, तथापि इस दशा का मनोरथ भी मुझे ऋद्धि, सिद्धि, उपलब्धि या अन्य प्रलोभनों और वाह्य चमत्कारों से बचा सकने में उपयोगी है।' इतनी स्मृति, जागृति और अनुप्रेक्षा कदम-कदम पर हो तो एक दिन मंजिल तक पहुँचा जा सकता है। इसके आगे के गुणस्थानों की भूमिका की सोपान-प्रक्रिया पर हम अगले निवन्ध में प्रकाश डालेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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