Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 503
________________ ॐ मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान * ४८३ * निरीहता होगी। न तो राग होगा, न द्वेष; न आसक्ति होगी और न घणा। ऐसे वीतरागता-समर्पित साधक को किसी प्रकार की उपाधि नहीं होगी। कोई निन्दा करे या स्तुति, वह तो इन दोनों ही प्रकार के शब्द-पुष्पों को वीतरागी महापुरुषों को ही यह कहकर चढ़ा देगा-"त्वदीयं वस्तु गोविंद ! तुभ्यमेव समर्पये।"-आपकी ही वस्तु आप ही को समर्पित करता हूँ।' - आशय यह है कि स्वरूपलक्षी संयम भी वीतराग देव के प्रति समर्पित होने पर साधक को जो कुछ भी पूजा या सम्मान, प्रतिष्ठा मिलेगी, उसे भी वह भगवान (मूल पुरुष) के चरणों में चढ़ा देगा। फिर उसे किसी प्रवृत्ति में ‘ऐसा हो या वैसा हो', 'यह मिले या वह मिले', इस प्रकार की किंचित् भी विकल्प वांछा नहीं होगी। कहा भी है “भक्तहृदय भगवान्मय, चहे न कुछ प्रतिदान। सर्वसमर्पण भक्त का, कहाँ रखे प्रतिदान ?" अर्थात् सर्वस्व समर्पण करने के बाद साधक का कुछ नहीं रहा और न ही कुछ प्रतिदान वह वीतराग प्रभु से चाहता है। यानी बदले में वह कुछ चाहता नहीं। परन्तु जो कुछ नहीं चाहता, उसे भी बदला तो अचूक रूप से मिलता है। जो आत्म-भोग (Sacrifice) देता है, वह तो सचमुच आत्मानन्द का अमृतपान करता ही है। भेद-भक्ति से अभेद-भक्ति की ओर प्रस्थान करने के लिए परन्तु आखिर तो यह भेद-भक्ति ही होगी और संयमी-साधक को तो स्वयं आत्मा से परमात्मा बनना है, वह यदि इस वीतराग-भक्ति के अवलम्बन में, फिर वह अवलम्बन में ही अटक जाता है। चाहे वीतराग-प्रभु के वचनरूप हो, चाहे उनके शरीररूप हो, अथवा निराकारपदरूप हो, अथवा उपशम-दशा को ही पर्याप्त मानकर (उसी उपशम-दशा में ही संतोष मानकर) वहीं रुक जाता है, अथवा प्रस्फुटित आत्म-वीर्य की बाह्य चमत्कारिता में ही फँस जाता है। अतः जैसे निज-स्वरूप की लीनता में प्रतिबन्ध और स्वच्छन्द, ये दोनों रुकावटें डालने वाले थे, इसलिए प्रतिबन्ध को रोकने के लिए आत्म-स्थिरतापूर्वक त्रिकरणत्रियोगी संयम की आवश्यकता बताई तथा स्वच्छन्दता को रोकने के लिये वीतराग-वचनों में अटल श्रद्धा रखकर उनके अनुसरणरूप समर्पणता आवश्यक बतायी, वैसे ही समर्पणरूप-भक्ति में जिन-प्रभु मुझसे भिन्न है, ऐसी जो भेदभावना की प्रतीति होती है, उसी में ही रुक जाने की प्रतिबन्धता को रोकने के लिए अभेद-भक्ति भी १. (क) “सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. २६-२७ (ख) स्वरूपलक्षे जिनाज्ञा-अधीन जो॥अपूर्व.॥५॥ (ग) आत्मस्वभाव अगम्य ते, अवलम्बन आधार। जिनपदथी दर्शावियाँ तेह स्वरूप-प्रकार॥ -श्रीमद् राजचन्द्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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