Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 513
________________ ॐ मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान 8 ४९३ & वाधक, विघ्नकारक एवं वन्धनकारक हैं। कदाचित् उदीयमान साधक को प्राथमिक अवस्था में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावों का ऐसा सम्यक् अवलम्बन साधक हो सकता है, किन्तु साधना में आगे बढ़े हुए या आगे बढ़ने के = उच्च गुणस्थान में पहुँचने के इच्छुक साधकों को इन्हें हेय अथवा उपेक्षणीय समझने चाहिए। अप्रतिबद्ध दशा-प्राप्ति के लिये उदयाधीन विचरण अप्रतिवद्ध दशा का आचरण और विचरण कैसा होना चाहिए? इस सम्बन्ध में कहा गया है-“विचरणुं उदयाधीन पण वीतलोभ जो।" अर्थात् बन्धन (प्रतिवन्ध) रहित विहरण, चाहे वह अन्दर का हो या बाहर का, उदयाधीन होना चाहिए। उदयाधीन का तात्पर्यार्थ है-सहज-स्फुरित और वह सहज-स्फुरण या आन्तर-ध्वनि सत्य है या मिथ्या? इसकी जाँच-परख का गुर यह है कि वह विचरण उद् + अय् + अ = उदय, यानी ऊँचा ले जाने वाला प्रतीत होना चाहिए। आशय यह है कि साधक को जिनाज्ञा और गहन आत्म-चिन्तना से ऐसा लगे कि यह कार्य स्व-पर के विशेष उत्कर्ष = कल्याण का कारण है, तो उसे किसी भी भाव के बन्धन के बिना कार्यरूप में परिणत करना उदयाधीन विचरण है। उपर्युक्त कसौटी पर कसने पर साधक को लगे कि वह विचरण व आचरण ऊँचा ले जाने वाला है, फिर भी निर्ग्रन्थ (छद्मस्थ) साधक को उससे भी प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिए। क्योंकि प्रतिष्ठा, प्रशंसा, यशःकीर्ति, सुविधा-प्राप्ति, शिष्य-शिष्या-प्राप्ति, भक्त-वृद्धि, खान-पान-प्राप्ति या आदराधिक्य आदि किसी भी प्रकार का लोभ, साधक के अवचेतन (अन्तर) मन के किसी कोने में सूक्ष्म रूप से भी पड़ा हो तो वह एक गाँठ से छुड़ाकर दूसरी गाँठों में बाँध देता है। इसीलिए इस पद्य के अन्तिम चरण में उदयाधीन के साथ एक विशेषण और जोड़ा गया है‘वीतलोभ'। यानी अप्रतिबद्ध विचरण (प्रवृत्ति) उदयाधीन हो तो भी यह वीतलोभ (लोभरहित) अर्थात् किसी भी प्रकार की कामना, स्पृहा, लालसा या आकांक्षा से रहित उदयाधीनता होनी चाहिए। क्योंकि जिसने कर्मों (क्रियाओं) के फलमात्र की कामना छोड़ दी है, जिसने स्वयं को वीतराग चरण में या वीतराग के चुस्त उपासक गुरुचरण में समर्पित कर दिया है और विश्वात्म सिन्धु में विलीनता प्राप्त कर ली है, उसकी ऐसी सहज दशा होनी स्वाभाविक है।' निष्कर्ष यह है कि अप्रतिवद्धता के अभ्यासी साधक को अपनी भूमिका के अनुसार किसी भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रतिबन्ध में लिप्त हुए १. (क) “सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण. पृ. ४०-४२ (ख) भगवान महावीर को जहाँ और जिस दशा में अमुक द्रव्य, क्षेत्र, काल या भाव प्रतिबन्धक प्रतीत हुआ, वहाँ वे जाग्रत और प्रतिवुद्ध होकर अप्रतिवद्धता की दिशा में . आगे बढ़ गए। -सं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534