Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 511
________________ * मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ४९१ तो बारहवें गुणस्थान में न पहुँचे, वहाँ तक रहता है। उसी को लेकर उपशम कोटि की विकास श्रेणी तक विकास प्राप्त जीव ग्यारहवें गुणस्थान से क्रमशः गिरता -गिरता केवल अज्ञानी की कोटि में आ जाता है। कषाय और नोकषाय मिलकर चारित्र मोहनीय के २५ प्रकार हैं। पर उन सबका मूल है - मोह | अज्ञान के नष्ट होने पर मोह दूर होता है । परन्तु यह निर्मोहता जब तक विचार, वाणी और व्यवहार में पूर्ण रूप से और सहज न उतरे, वहाँ तक जीव साधक - दशा में रहता है । इतना ही नहीं, बल्कि असावधानी से अपना पतन भी कर लेता है। इसलिए निर्ग्रन्थ साधक को अप्रमत्तता का अभ्यास करने के लिये सतत सावधानी रखनी अनिवार्य है।' प्रमाद का चतुर्थ अंग : निन्दा या निद्रा प्रमाद का चतुर्थ अंग निन्दा या निद्रा है। किसी व्यक्ति का स्वयं को प्रतीत होने वाला दोष दूसरे के समक्ष खुला करके उस व्यक्ति को बदनाम करना, नीचा दिखाना, निन्दा का स्थूलरूप है। ऐसा करने से दोषी व्यक्ति का दोष कम नहीं हो जाता, प्रायः व्यक्ति अपने दोष की निन्दा सुनकर छोड़ता भी नहीं, बल्कि उस दोष का चेप निन्दा करने और सुनने वाले, दोनों को लगता है । इसीलिए कहा गया हैनिन्दा के समान कोई अनिष्ट नहीं है । निन्दा की बेल वहीं पनपती है, जहाँ आलस्य और अज्ञान होता है। निन्दा के स्थूल स्वरूप की अपेक्षा उसका सूक्ष्म स्वरूप भयंकर है। साधक की गफलत से - अपने से दूसरे के विचार, वचन और आचार-व्यवहार निम्न कोटि हैं, ऐसा विचार आते ही सूक्ष्म निन्दा प्रविष्ट हो जाती है। जहाँ दूसरे की यश: कीर्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, प्रभाव, अनुकूलता, लाभ या शक्ति में अधिक देखकर उसके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, असूया, चुगली, द्रोह, नीचा दिखाने की या उसके प्रति लोक श्रद्धा गिराने की या असहिष्णुता या गुणग्रहण भावरहितता की वृत्ति आई कि अदृश्य रूप से अन्तःकरण में निन्दा आ गई, जो भावहिंसा है, आत्म-रस को चूसने वाली महाराक्षसी है । द्रव्यनिद्रा भी प्रमाद है, किन्तु भावनिद्रा तो महाप्रमाद है, जिसके कारण साधक ज्ञानादि पंचाचार के प्रति आलसी, अपुरुषार्थी, असावधान, प्रमत्त, अनुत्साही और उपेक्षक बन जाता है। प्रमाद का पंचम अंग : विकथा प्रमाद का पंचम अंग विकथा है। इसके चार प्रकार हैं - ( 9 ) स्त्री - विकथास्त्रियों के रूप- लावण्य, अंगचेष्टा आदि की कामोत्तेजक कथा, (२) भक्त-कथाभोज्य पदार्थों की आसक्तिजनक कथा, जिससे स्वादेन्द्रिय- आसक्ति बढ़े, (३) देश - विकथा - देश-विदेश के भोगोपभोग के विलासी साधनों की तथा परिग्रह १. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ३६-३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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