Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 510
________________ ४९० कर्मविज्ञान : भाग ८४ या प्रभुत्व सन्तोष देने के बदले असन्तोषवर्द्धक अथवा उस पद आदि से भ्रष्ट होने का समय आ जाता है। उच्च शिक्षा, साधन और अधिकार' मिलने पर ऐसे लोग अहंकारवश संक्लिष्ट, ईर्ष्यालु और दुःखी होते रहते हैं।' प्रमाद का द्वितीय अंग : विषय प्रमाद का दूसरा अंग है - विषय । विषय का सम्बन्ध विशेषतया विकार से है। इतनी उच्च कोटि पर पहुँचा हुआ साधक पंचेन्द्रिय विषयों के प्रति राग-द्वेष का, मनोज्ञता-अमनोज्ञता का, प्रियता - अप्रियता का भाव न आने देने की जागृति रखेगा। स्पर्शेन्द्रिय विषय से निवृत्त रहने के लिए स्त्रीमात्र के प्रति मातृभाव रखेगा या ' स्व-परिणीत स्त्री के साथ भी विकृत सम्बन्ध नहीं रखेगा। साधक की मनोभूमि में शरीर-स्पर्शजन्य कामविकार के संस्कार क्षीण नहीं होंगे तो बाह्य (ज्ञात) मन से निवृत्त होने पर भी अज्ञात मन में पड़े कुसंस्कारवश किसी न किसी निमित्त के मिलते ही वे प्रादुर्भूत हो जायेंगे और मन को क्षुब्ध कर डालेंगे । इसीलिए विषय को प्रमाद का अंग माना गया है। क्योंकि प्रमाद का अर्थ है - आत्म-स्खलन, आत्मा की स्थिरता को विचलित करना । वस्तुतः जननेन्द्रिय के स्पर्शसुखजन्य कामवासना - संस्कार ठेठ आत्मा के उच्च-स्तर तक दृढ़ता के साथ पहुँचकर गहरा प्रभाव डालते हैं और आगे बढ़ते हुए साधक को जितना पीड़ित करते हैं, उतने अन्य इन्द्रियों के विषय पीड़ित नहीं .. करते। यद्यपि सभी इन्द्रियों के विषय परस्पर एक-दूसरे के निकटवर्ती या दूरवर्ती संगी-साथी तो हैं ही। परन्तु इनका सम्बन्ध राजा और राजसैन्य जैसा है। राजा को जीत लिया तो उसका सारा सैन्य स्वतः ही जीता जाता है। इसी तरह स्पर्शेन्द्रिय विषय को जीत लिया तो दूसरे विषय प्रायः जीत लिये समझो। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा है " एक विषय ने जीततां, जीत्यो सौ संसार । नृपति जीततां जीतिए, दल, पुर ने अधिकार ॥" प्रमाद का तृतीय अंग : कषाय कषाय प्रमाद का तीसरा अंग है । अप्रमत्त दशा में उत्तरोत्तर आगे बढ़ने से ही निर्ग्रन्थ साधक विकार पर सर्वोपरि काबू पा सकता है। फिर भी कषाय का अंश १. ऐश्वर्य का अर्थ है - सहज रूप से पच सके, वैसा अधिकार । अधिकार प्राप्त मानव यदि गर्व करता है, तो अपना व विश्व का अनिष्ट बढ़ाता है। २. कर्यं करुं हुं भजन आटलुं ज्यां त्यां वात कराय नहीं । हूं मोटो मुजने सहु पूजे, ए अभिमान कराय नहीं ॥ इस भजन की कड़ी का भी यही तात्पर्य है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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