Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 515
________________ ॐ मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ® ४९५ ॐ बहु उपसर्गकर्ता प्रत्ये पण क्रोध नहि, वंदे चक्री तथापि न मले मान जो। देह जाय पण माया थाय न रोममां, लोभ नहि छो प्रबल सिद्धि-निदान जो॥८॥" इनकी पूर्व भूमिका यह है कि सातवें और आठवें पद्य में राग और द्वेष के क्रोध, मान, माया, लोभ रूप चार सेनानियों (युद्ध-विशारदों) के साथ अप्रमत्त-साधनाशील आत्मा को अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर एक बार तो भिड़ ही जाना पड़ता है। जब आमने-सामने विजय-गर्विष्ठ योद्धा (आन्तरिक) युद्ध के मैदान में उतर पड़ते हैं, तब दोनों पक्षों में जोश होता है, दोनों पक्ष एक-दूसरे पर जोर-शोर से हावी होने लगते हैं। ऐसे आन्तरिक महासमर के समय अप्रमत्त साधनाशील साधक की कसौटी होती है। ऐसे समय में क्रोधादि का सामना साधक कैसे करे ? इसके लिए सप्तम पद्य में दिशा-निर्देश दिया गया है।' क्रोध जब हावी होने को आए, तब उसके प्रति सहज रूप से क्रोध हो, अर्थात् उस समय होश के साथ अक्रोधता का जोश स्वाभाविक बना रहे। मान आने के लिए उद्यत हो, उस समय अत्यन्त दीनता (अत्यन्त नम्रता) का मान यानी स्वाभाविक आदर हो। माया (छल-कपट) जब आने के लिए उद्यत हो, तब माया के प्रति प्रीति खोकर साक्षीभाव के प्रति माया (प्रीति) उत्पन्न हो तथा लोभ के प्रति लोभ के तुल्य न बनें। अर्थात् जैसे-लोभ दूसरों को लुभाकर अपनी ओर खींच • लेता है, वैसे ही आत्मा शुभ या अशुभ किसी भी सांसारिकभाव को लुब्ध होकर न खींचे। यदि पूर्वाध्यास के कारण शुभाशुभ भाव खींचे चले आएँ तो भी स्वयं निर्लेपभाव (अलुब्धभाव) में स्थित रहे। . क्रोध के प्रति स्वभाव-रमणता का जोश कैसे रहे ? आवेश, रोष, कोप, गुस्सा, द्वेष, ईर्ष्या, वैर-विरोध आदि सब क्रोध के परिवार हैं। कषायों में सबसे पहला नम्बर क्रोध का है। यह तो स्पष्ट है कि क्रोधी मनुष्य अधिक समय तक अपना स्वरूप शायद ही छिपा सकता है। क्रोध जल्दी से जल्दी सर्वप्रथम खुला (प्रकट) हो जाता है। क्रोध के समय क्रोधी के मानसिक उतार-चढ़ाव, चेहरा और उसकी वृत्ति या खासियत का तुरन्त पता लग जाता है, उसकी फौरन कलई खुल जाती है। क्रोध का पता लगाने में ये लक्षण दर्पण का काम करते हैं। इतनी आसानी से मान, माया और लोभ की परख नहीं हो सकती। १. (क) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ४४-४५ (ख) 'अपूर्व अवसर', पद्य ७-८, उनका अर्थ और रहस्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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