Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 502
________________ * ४८२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ 8 (अनिष्टों, बुराइयों या पाप-प्रवृत्तियों) को अपनी अशुद्धि या उपादान-शुद्धि की न्यूनता का परिणाम समझेगा और अपनी आत्म-शुद्धि (उपादान-शुद्धि) के लिए अधिकाधिक पुरुषार्थ करेगा। वह अपनी भूलों, अशुद्धियों, दुर्बलताओं और विवशताओं का टोकरा दूसरों (निमित्तों आदि) के सिर पर डालकर, वृत्ति-विवश होकर उससे भागना-उदासीनता या उपेक्षा धारण करना कदापि पसंद नहीं करेगा। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, लोक के, वह समग्र लोक के दुःखों को जानकर ही ऐसी उपलब्धि प्राप्त कर पाता है। ये हैं स्वरूपलक्षी संयम की उपलब्धियों के सुपरिणाम। छठे सोपान का उत्तरार्द्ध : स्वरूपलक्षी संयम भी जिनाज्ञाधीन है ___ यहाँ तक पहुँचने के बाद भी एक महाभय मुमुक्षु संयमी साधक के सिर पर मँडराता रहता है, वह यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से साधक को संयम स्वरूपलक्षी होने पर भी अध्यात्मज्ञान, शास्त्रज्ञान के अजीर्ण का, अपने स्वरूपलक्षी होने के अहंकार का अथवा जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, ऐश्वर्य, लाभ, तप आदि के मद का। प्रशंसा से मन में होने वाले बवंडर का अथवा अहंत्व के अभिमान का भी बहुत बड़ा खतरा है। अकारण होने वाली निन्दा को पचा जाना, पी जाना सरल है, किन्तु प्रशंसा को पी जाना या पचा जाना बहुत कठिन है। जुल्मों और अपमानों का सहना सरल है, किन्तु 'आओ, पधारो', 'घणी खम्मा' की या 'जय-जयकार' की कर्णप्रिय टंकार सुनाई दे रही हो, उसके वचनों को सुनने के लिये मानवमेदिनी के कान उत्सुक हों, आँखें उसके दर्शन-नमन करने के लिए अपलक रूप से गड़ी हों, उस समय की श्रद्धा, आशा और सम्मान-पूजा को पचाना अत्यन्त कठिन है। इसीलिए यहाँ कहा गया कि संयम स्वरूपलक्षी तो हो, मगर उसके साथ-साथ स्वच्छन्दता तथा अहंता-ममता, निन्दा-प्रशंसा एवं पूजा-प्रतिष्ठा के मगरमच्छ उसकी संयम-साधना को निगल न जाएँ, इसलिए स्वरूपलक्षता के साथ जिनाज्ञाधीनतारूपी सुरक्षा अवश्य होनी चाहिए, ताकि इन पूर्वोक्त दोषों से साधक बच सके, साथ ही साधक-दशा में संयमी को जो प्राथमिक साक्षात्कार, प्रसिद्धि, सिद्धि, उपलब्धि, लब्धि आदि प्राप्त होती हैं, उनमें पतन होने के खतरे से वह बच सके। इसके लिए जिनाज्ञाधीनता की ढाल साथ में रहनी जरूरी है। जिन यानी वीतराग, उनकी आज्ञा, अर्थात् वीतरागता का मार्ग, उसमें विचरण करना और अधीनता का अर्थ है-उसके लिए सर्वस्व समर्पण करना। आशय यह है कि स्वरूपलक्षी संयम के फलस्वरूप जो भी उपलब्धि, सिद्धि, प्रसिद्धि आदि प्राप्त हो, उसे परम श्रद्धा-भक्तिपूर्वक वीतराग देव के चरणों में समर्पण करना चाहिए। दूसरे शब्दों में उसके तथारूप संयम के साथ वीतरागता आनी चाहिए। वीतरागता आने पर उक्त सिद्धि, प्रसिद्धि, उपलब्धि आदि की प्राप्ति के प्रति उसकी निःस्पृहता, निर्लेपता, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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