________________
* मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४ ४८१
स्वरूपलक्षी संयम कैसा होता है, कैसा नहीं ?
--
दूसरी बात - जहाँ सही माने में संयम होता है, वहाँ 'हम' तो अपना (स्वयं की आत्मा का) ही करें, हमें विश्व से क्या सरोकार ? ऐसी असम्बद्ध (असंगत) बातें नहीं हो सकतीं। वहाँ सर्वभूतात्मभूत, आत्मौपम्य या निःस्वार्थ विश्व - वात्सल्य की भावना कैसे मूर्तरूप लेगी? वहाँ वीतराग भगवन्तों की "जगत् के सर्व जीवों की आत्म-रक्षारूप दया के लिए भगवान ने प्रवचन सम्यक्रूप से कहा । " यह आगमोक्त विश्व के समस्त प्राणियों को आत्मवत् माने बिना कैसे सिद्ध हो सकती है ? अतः संयमी साधक स्वरूपलक्षी (विश्वात्मलक्षी ) होकर स्वयं को जगत् का माता-पिता (षटुकाया का पीहर ) मानकर सर्वभूतात्मभूत बनकर समस्त प्राणियों को आत्म-सम मानेगा, समदर्शी बनेगा, तभी पूर्वोक्त संयमी के जीवन में संयम का उक्त प्रभाव दिखाई देगा। फिर उसका लक्ष्य समग्र विश्व ( प्राणिमात्र) को अपने में समा लेने का लक्ष्य होगा। जहाँ सारा विश्व अपना है, सारी वसुधा ही कुटुम्ब है, वहाँ अपने-पराये के भेद कैसे हो सकते हैं ?" "जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । " सूत्र का रहस्य भी यही है ।
विश्वमैत्री का सूत्र उसके जीवन में ओतप्रोत हो जाएगा। फिर उसके लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहरूप संयम के अंगों का पालन सहज हो जाएगा। सर्वभूतात्मभूत होने पर यानी सबको अपने मानने पर किसी की हिंसा, असत्य, चौर्य आदि में प्रवृत्त ही नहीं हो सकेगा । इस प्रकार के स्वरूपलक्षी पुरुष के लिए एक विचारक ने कहा है
"वह स्वयमेव क्यों अपनी आत्मा को करेगा खण्डित, भेद- रेखाएँ खींचकर । क्योंकि खण्डों (भेदों = भिन्नताओं) से खण्डित होता, तेरा स्वरूप अमर ॥"
अतः आत्मार्थी संयमी - साधक की स्वरूपलक्षिता अपनी संयम - साधना से अभिन्नता-अखण्डता या अद्वैतता सिद्ध करने के अभ्यासरूप होगी । ऐसी स्थिति में सर्वभूतहितरत स्वरूपलक्षी साधक अपने आसपास होने वाली विषम परिस्थितियों
9.
(क) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. २६ ख अप्पसमं मन्निज्ज छप्पिकाए। (ग) सव्वभूयप्पभूयस्स समं भूयाई पासओ ।
पिहि आसवस्स दंतस्स पावकम्मं न बंधइ ॥ (घ) जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ ।
- आचारांग, श्रु. १, अ. ३, उ. ४
जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । (ङ) सव्वजगज्जीव रक्खण-दयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । (च) जे एगं नामे, से बहुं नामे, जे बहु नामे, से एगं नामे । दुक्खं लोयस्स जाणित्ता ।
- आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ३, उ. ४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- दशवैकालिक
-वही ४ / ९
- प्रश्नव्याकरण
www.jainelibrary.org