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अप्रमत्त-संयत गुणस्थान से उपशान्त-मोह गुणस्थान तक
मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास केसोपान
सप्तम सोपान : अप्रमत्तता तथा अप्रतिबद्धता का अभ्यास ।
स्वरूपलक्षी संयम के हेतु योगों की प्रवृत्ति जिनाज्ञाधीन होने पर तथा तदनन्तर भेद-भक्ति से अभेद-भक्ति की ओर बढ़ने पर साधक की स्वरूप-दशा कैसी होती है
और क्रमशः कैसी होती जाती है? इसे छठे पद्य में संक्षेप में इस प्रकार बताया गया है___ “शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श; इन पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति राग और . द्वेष दोनों का अभाव रहे, यानी मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों ही परिस्थितियों पर समभाव-माध्यस्थ्य रहे तथा पाँच प्रकार के प्रमादों से मन की स्थिति क्षुब्ध (चंचल) न हो और कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्ति सिर्फ उदयभाव के अधीन होकर हो, परन्तु उसमें ऐसा ही हो, ऐसा नहीं या इससे ही हो, इत्यादिरूप से किसी प्रकार का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का प्रतिबन्ध (बन्धन) न हो और न ही उसमें किसी प्रकार की फलाकांक्षा (फलासक्ति) हो। दूसरे शब्दों में, प्रत्येक प्रवृत्ति में निर्लोभता, अनासक्ति, समता या आशा-स्पृहारहितता हो। अप्रमत्तभाव से ऐसी सुदृढ़ या परिपक्व साधना हो।" राग-द्वेषरहितता का तात्पर्य, अभ्यासविधि, जागृति
तात्पर्य यह है कि जिस छठे गुणस्थानवर्ती साधक ने सगे-सम्बन्धियों, जमीनजायदाद या धन-सम्पत्ति पर से स्वामित्व (अहंत्व-ममत्व) हटाकर अकिंचन याचकवृत्ति (यथालाभ सन्तोष वाली सर्वसम्पत्करी भिक्षावृत्ति) अंगीकार की है, उस त्यागवीर भिक्षु को संयम-साधना के लिये अत्यावश्यक साधन समाज से प्राप्त करने के लिए आत्म-भाव खोये बिना पुरुषार्थ करे तो उसे मिल ही जाते हैं। परन्तु ये अत्यावश्यक साधन उसके द्वारा प्राप्त किये जाने पर या उसे प्राप्त होने पर उनमें उसका माध्यस्थ्यभाव-समत्वभाव टिका रहना चाहिये। अर्थात् न तो उनके कारण
१. पंचविषयमां राग-द्वेषविरहितता, पंचप्रमादे न मले मननो क्षोभ जो।
द्रव्यक्षेत्रने कालभावप्रतिबन्ध विण, विचरवं उदयाधीन वीतलोभ जो।अपूर्व.॥६॥
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