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ॐ ४७८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ .
आत्म-स्थिरतायुक्त साधक जाग्रत रहकर समभावपूर्वक उस दुःख को सहेगा, हायतोबा नहीं मचाएगा, न ही बहम और पामरता की मूर्ति बनेगा और न सेवा करने वालों पर बार-बार कुढ़ेगा। वह रोग से मुक्त होने के लिए सात्त्विक उपचार अवश्य करेगा, परन्तु ऐसे समय में आत्म-स्थिरता और संयम खोकर दूसरे जीवों को जरा भी कष्ट नहीं देगा, उनके प्राणों को संकट में नहीं डालेगा। बल्कि दूसरों के दुःख और कष्ट में स्वयं कष्ट सहकर उसकी सेवा करेगा। पापी व्यक्ति को भी कष्ट और संकट में पड़ा देखकर करुणा और अनुकम्पाभाव से उसे सान्त्वना देगा, उसके दुःख के निवारण में सहायक होगा।'
संयमी के मन, वचन, काया, हाथ, पैर आदि अंगोपांग तथा इन्द्रियाँ भी हैं। इन सभी का समावेश शरीर के अन्तर्गत हो जाता है। शरीर होने से उसे चलना, फिरना, सोना, उठना, बैठना, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, लेना-रखना, बोलना आदि सभी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं, परन्तु असंयमी और संयमी की प्रत्येक प्रवृत्ति में अन्तर होगा। संयमी जो कुछ भी मन, वचन और काया से क्रिया करेगा, वह सब संयम की सीमा में रहकर करेगा, जबकि असंयमी की क्रियाओं में कोई मर्यादा होगी ही नहीं, कदाचित् होगी, (सम्यग्दृष्टिसाधक की अपेक्षा से) तव भी संयमी के जितनी या संयमी के जैसी नहीं होगी। वैराग्य विवेकयुक्त सम्यग्ज्ञान होने से संयम में वृद्धि व सुदृढ़ता
यह तथ्य भी विचारणीय है कि संयमी साधक में भी जितने अंश में पूर्वोक्त सर्वांगीण संयम होगा, उतने अंश में विवेक होना अवश्यम्भावी है, क्योंकि सम्यग्ज्ञान वैराग्ययुक्त विवेक के बिना टिक ही नहीं सकता और उक्त सम्यग्ज्ञानविहीन संयम सौ टंची (खरा) संयम नहीं माना जा सकता। इसलिए ऐसे संयमी को प्रतिक्षण आत्मभान रहता है। __ इस दृष्टि से पूर्वोक्त संयमी अपने जीवन की आवश्यकताओं को सीमित कर लेगा। इतना ही नहीं, किसी भी आवश्यक उपकरण पर स्वामित्व-हक रखने की वृत्ति भी उसे अब भारभूत मालूम होगी। ऐसा संयमी व्यक्ति घर छोड़कर जंगल में, गुरुकुल में या साधु-संस्था में जाए ही, ऐसा कोई निश्चित नियम नहीं है। गृहस्थ-जीवन में अपने पत्नी-पुत्रादि के साथ रहते हुए भी वह सपत्नीक ब्रह्मचर्यरत गृहस्थ पूर्वोक्त संयम की साधना कर सकता है। महात्मा गांधी, रामकृष्ण परमहंस आदि की तरह पति-पत्नी दोनों ब्रह्मचर्य-परायण रहकर आजीवन संयमी रह सकते हैं। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में स्पष्ट कहा है
“संति एगेहिं भिक्खूहिं गारत्था संजमुत्तरा।'२ १. 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. २०-२१ २. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ५, गा. २०
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