Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 497
________________ * मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४ ४७७ आत्म-स्थिरता वाले मुमुक्षु का प्रभाव और अभ्यास की परिपक्वता कब ? जैनागमों में बताये हुए पंचम गुणस्थानवर्ती साधक के लिए यह विधान है। इस भूमिका वाले गृहस्थ साधक को सरागसंयमी, संयमासंयमी, विरताविरती या व्रतवद्ध श्रमणोपासक या व्रती श्रावक कहते हैं। इस भूमिका में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक, ये तीनों भाव हो सकते हैं । परन्तु यहाँ तो क्षायिकभाव में स्थिर रहने की पंचम गुणस्थानवर्ती व्रतधारी श्रावक से अपेक्षा है। जैसे‘उपासकदशांगसूत्र' में वर्णित व्रतधारी श्रमणोपासक आनन्द, कामदेव, महाशतक आदि पर कई प्रकार के उपसर्ग आए, फिर भी वे उस समय अधिकांश रूप से धर्म पर दृढ़ रहे। यदि श्रमणोपासकवर्ग क्षायिकभाव का लक्ष्य रखे तो उपशमभाव या क्षयोपशमभाव में उदय में नहीं आए हुए या अनुदीर्ण कर्मों की उपशान्त दशा होने से मौलिक शुद्धि में कमी रह जाती है । और जितनी कमी रहती है, उतना ही भय है - परीषहों और उपसर्गों के आने पर फिसलने का। क्योंकि साधक का मुख्य उद्देश्य तो परीषहों और उपसर्गों का समभावपूर्वक मुकाबला करना और अन्त में उन पर सम्पूर्ण रूप से विजय प्राप्त करना है । ऐसा तभी हो सकता है, जब मुमुक्षु आत्मार्थी साधक आधि, व्याधि और उपाधि के आने पर अपना संयम खोये बिना अपने धर्म (आत्म-धर्म) पर डटा रहे । ऐसी अनुप्रेक्षा सम्प्रेक्षा करे कि ये उपसर्ग या परीषह या उपद्रवमात्र मेरी आत्म-स्थिरता, मुमुक्षुता या उच्च दशा की परीक्षा करने के लिए आए हैं, आते हैं। ये संकट, कष्ट या उपद्रव मेरे द्वारा पहले या वर्तमान में किये गए अपराध और उससे होने वाले अशुभ कर्मबन्ध के परिणाम हैं। ऐसा मानकर वह चित्त को शान्ति और प्रसन्नता से परिपूर्ण रखने का प्रयास करता है । अभ्यास और वैराग्य द्वारा साधक अपनी प्रत्येक क्रिया या वृत्ति प्रवृत्ति में अहिंसा और सत्य का सहजभाव से पालन करेगा। ऐसे सहज अभ्यास के कारण विपरीतवृत्ति - हिंसक वृत्ति-प्रवृत्ति वाला देहधारी भी उसका सामना करने से पहले उसके प्रभाव के समक्ष ठंडा पड़ जाएगा। जिस प्रकार राजगृह निवासी सुदर्शन श्रमणोपासक की आत्म-स्थिरता और अहिंसा से प्रभावित होकर यक्षाविष्ट अर्जुनमाली का जोश शान्त हो गया । कदाचित् एक बार तीव्र आदेशवश वह अनर्थ भी कर बैठेगा, तो भी आखिरकार उसे सत्यार्थी और आत्म-स्थिरतायुक्त साधक के समक्ष झुकना ही पड़ेगा, उसकी अन्तरात्मा भी उसे चैन से बैठने नहीं देगी, उसके प्रति नतमस्तक हुए बिना नहीं रहेगी। जैसे- अभया रानी ने सत्यार्थी शीलवान् सुदर्शन सेठ पर एक बार तो कलंक का टीका लगा दिया था, परन्तु सत्य प्रगट होने पर तथा सुदर्शन सेठ द्वारा उसकी प्राण-रक्षा किये जाने पर अन्त में उसे झुकना ही पड़ा। अतः आत्म-स्थिरता वाले साधक अहिंसा, सत्य और शील को जीवन में पचा - रमा लेते हैं, वे समय आने पर सत्य, शील और अहिंसा के लिए प्राणों का अर्घ्य भी चढ़ा सकते हैं। भयंकर से भयंकर बीमारी के समय भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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