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* मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४७५
आत्म-स्थिरता की कसौटी : परीषह और उपसर्ग
आत्म-स्थिरता की कसौटी होती है- अनुकूल या प्रतिकूल परीषहों, कष्टों, भयप्रलोभनों तथा उपसर्गों के समय । परीषह और उपसर्ग में स्पष्ट अन्तर है । परीषह धर्म (संवर-निर्जरारूप) मार्ग से भ्रष्ट न होने के लिए निर्जरा के हेतु समभावपूर्वक कष्ट सहन करने के अर्थ में है, जबकि उपसर्ग हैं- अनिच्छा से अप्रत्याशित रूप से आ पड़ने वाले देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत उपद्रव या कष्ट । जैसे- कोई साधक नंगे पैर पैदल विहार कर रहा है। गर्मी का मौसम है । गाँव अभी दूर है। सख्त धूप पड़ रही है। मार्ग पथरीला या कँटीला है। रास्ते में कई अपरिचित गँवार मिलते हैं। वे सही रास्ता बताने के बजाय गलत बताते हैं । हँसी उड़ाते हैं । ऐसे समय में मुमुक्षु साधक निमित्तों को दोष न देकर या उन पर जरा भी क्रोध न करके, निर्जरा का अवसर समझकर आत्म-स्थिरता वाला साधक इस परीषह को समभावपूर्वक सह लेता है। किन्तु आत्म- स्थिरताविहीन साधक ऐसे समय में आपे से बाहर होकर निमित्तों के साथ बकझक, गाली-गलौज या अभद्र व्यवहार करके उक्त कर्म भोगने में अल्प-निर्जरा के बजाय बहुत-से अशुभ कर्मों का बंध कर लेता है, जबकि आत्म-स्थिरता वाला साधक सत्य और अहिंसा के पालन के लिए सत्य हरिश्चन्द्र, मैार्य मुनि आदि की तरह अपने प्राणों को न्यौछावर करने को तैयार हो जाता है। उपसर्ग तो अकस्मात् आता है, उसकी कल्पना तक नहीं होती । जैसे- किसी साधक को कड़ाके की भूख लगी है। आहार करना आवश्यक है, उसकी इच्छा भी भोजन करने की है। पास में ही आहार लाया हुआ पड़ा है। किन्तु अचानक कोई व्यक्ति उपद्रव करके उसे बिगाड़ देता है । ऐसे उपसर्ग के समय यदि वह क्रोध करता है तो उससे बिगड़ा हुआ भोजन सुधारने वाला नहीं, परन्तु आत्म-स्थिरता खो दी कि उस मौके पर आवेश आ सकता है, कदाचित् सामने वाले के समक्ष आवेश प्रगट न किया जाए, फिर भी वृत्ति में उत्तेजना आ सकती है। यह उत्तेजना भी आत्म-विस्मृति की सूचक है। ये दोनों उदाहरण तो सामान्य परीषह और उपसर्ग के हैं। परन्तु मुक्ति के पंचम सोपान पर आरोहण करने वाले के समक्ष घोर से घोर परीषह या उपसर्ग आएँ, जो वृत्ति में उल्कापात मचा दें, अथवा उपसर्ग के आने का भय भी कोई दिखाए, अथवा प्रलोभन देकर संयम से डिगाना चाहे, तो आत्म-स्थिरता वाला साधक कदापि वृत्ति में अस्थिरता = विचलता नहीं लाएगा।'
छठा सोपान : निजस्वरूप में लीनता के लिए संयम हेतु से योग प्रवृत्ति और स्वरूपलक्षी जिनाज्ञाधीनता
'ज्ञानस्य फलं विरतिः ।" इस नियम के अनुसार सम्यग्ज्ञानी और आत्म-दृष्टि-परायण सम्यग्दर्शी - समदर्शी साधक संयम के बिना रह ही नहीं सकता ।
१. 'सिद्धि के सोपान' के आधार पर, पृ. १८-२१
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