Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 489
________________ * मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४६९ तगड़ा और पुष्ट बनाने की चिन्ता करना उसे चिरकाल तक टिकाये रखने के लिए पौष्टिक रसायन सेवन करना अन्य बात है और शरीर से संयम - पालन के प्रति जागरूक रहते हुए, यथावश्यक आहार- पानी आदि देना, उसका लाड़-प्यार न करना, उसकी अवस्थाएँ परिवर्तित होने पर जरा भी चिन्ता न करना, दूसरी बात है। पहली में शरीर और शरीर-सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति पद-पद पर चिन्ता है, दूसरी बात में शरीर के प्रति आवश्यकतानुसार जागृति है । तब पहली बात में शरीर के प्रति मूर्च्छा-ममता है, अश्रद्धायुक्त चिन्ता है । शरीर पर हद से ज्यादा देखभाल रखने से वह सुकुमार, सुविधावादी और भौतिक सुखलोलुप बन जाता है। भौतिक सुखलोलुपता से शरीर को पालने - पोसने से मन भी कमजोर और अस्वस्थ बन जाता है । फलतः निर्ग्रन्थता और स्वरूप - स्थिरता टिकनी असम्भव हो जाती है। अतः मुमुक्षु को चेतावनी दी गई है - " देहे पण किंचित् मूर्च्छा नव जोय जो ।” धर्म-पालन करते हुए अगर शरीर छूट जाता है तो इससे बढ़कर आत्म-साधना क्या होगी? जब मुमुक्षु साधक की शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव वस्तुओं पर से मूर्च्छा, आसक्ति, इच्छा आदि भी दूर हो जाएगी, परिवार, गण, सम्प्रदाय या शिष्य - शिष्या, भक्त-भक्ता आदि अथवा मान-प्रतिष्ठा आदि पर तो मूर्च्छा (आसक्ति) रहेगी ही कैसे ? इस प्रकार मुक्ति के तृतीय सोपान के रूप में सर्वभावों के प्रति उदासीनता - विरक्ति के साथ-साथ शरीर के प्रति भी वैराग्यमय अभ्यास के द्वारा मूर्च्छा निवारण करना आवश्यक है। साधक का शरीर केवल संयम का साधन बनकर रहना चाहिए । ऐसे संयममूर्ति साधक को संयम-साधना के निमित्त कारण के सिवाय अन्य किसी भी कारण से कोई भी वस्तु इच्छनीय या उपादेय नहीं रहनी चाहिए। ऐसी स्थिति में पेट माँगे, जब अवश्य ही क्षुधा - निवारणार्थ खाद्य पदार्थ लिया जा सकता है, किन्तु जीभ माँगे वह पदार्थ कतई नहीं लिया जा सकता। इस प्रकार शरीर की मूर्च्छा दूर होगी । ऐसी स्थिति में उसका आहार विषयपूर्ति के लिये नहीं, अपितु शरीर को पर्याप्त जीवन-शक्ति देकर टिकाने के लिये औषधरूप बन जाएगा । संयम - यात्रा के लिए थोड़े-से पदार्थों की आवश्यकता होने से परिग्रह भी यानी परिगृहीत पदार्थ भी कम हो जाएगा। जो कुछ पदार्थ रहेंगे, वे आत्मोत्कर्ष के लिए होंगे। चतुर्थ सोपान : दर्शनमोह का सागर पार होने से केवल चैतन्य का बोध कई बार साधक क्षणिक आवेश, ज्ञात मन से हुए 'वैराग्य और दूसरों की देखादेखी त्याग के प्रवाह में बहकर यह समझ लेता है कि मुझे संसार के समस्त सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति विरक्ति हो चुकी है, यहाँ तक कि शरीर के प्रति भी ममता-मूर्च्छा नहीं रही; परन्तु उसके अवचेतन (अज्ञात) मन में दीर्घकाल से दबे हुए, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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