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ॐ मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ॐ ४६७ ॐ
धर्माचरणी के लिए पंच आश्रय स्थान भी बन्धनकारक न बन जाएँ ___ 'स्थानांगसूत्र' में कहा गया है कि धर्माचरण (संवर-निर्जरारूप धर्म में पुरुषार्थ) करने वालों के लिए पाँच आश्रय स्थान हैं-(१) षट्काय, (२) गण (धर्मसंघ), (३) शासक (राज्यकर्ता), (४) गृहपति, और (५) शरीर।' मुमुक्षु साधक जब इन पाँचों का आलम्वन स्वीकार करता है, तब इन पाँचों से एक या दूसरे प्रकार से सम्बन्ध जुड़ता है। यद्यपि इन पाँचों का संयोग सम्बन्ध होता है, परन्तु वह इन्हें भ्रमवश पर-भाव न मानकर इनसे मोह, ममत्व, राग-द्वेषवश बँध जाता है, इनका परिग्रहण कर लेता है, इसी प्रकार इनका आश्रय ग्रहण करनाभगवदाज्ञा मानकर अमुक द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के षट्कायादि अहंकार-ममकारवश वध जाता है, इससे भिन्न अन्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव के षट्कायादि के प्रति द्वेष: घृणा, वैमनस्य, ईर्ष्या आदि करने लगता है, इस प्रकार वीतरागता, मुमुक्षुता या निर्ग्रन्थता को ताक में रखकर अधिकाधिक राग-द्वेष, कषाय, परिग्रहरूप ग्रन्थों के चक्कर में पड़ जाता है। अतः बाह्यरूप से ग्रन्थ-त्यागी निर्ग्रन्थ का आँचल ओढ़कर भी उसमें सच्ची निर्ग्रन्थता नहीं आ पाएगी, उसमें सच्ची निर्ग्रन्थता कैसे आए?
द्वितीय सोपान : सर्वभावों के प्रति उदासीनता, विरक्ति एवं निर्लिप्तता इसके लिए द्वितीय सोपान के रूप में समस्त पदार्थों के प्रति उदासीन भाव = वैराग्य भाव की जागृति का निर्देश किया गया है।
- मोक्ष के भावों से भावित सम्यग्दृष्टि के पाँच लक्षण चतुर्थ गुणस्थानवर्ती साधक की पहचान के लिए शास्त्रकारों ने पाँच लक्षण बताए हैं-शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य। उसका जीवन परमुखापेक्ष न रहकर स्वयं आध्यात्मिक श्रम, कषायों का उपशम और समभाव से युक्त होगा। उसका मन, बुद्धि, चित्त, हृदय आदि अन्तःकरण तथा वचन-काय-इन्द्रिय आदि बाह्यकरण सदैव मोक्ष के भावों से भावित रहेंगे। मोक्ष की लहरें उसके जीवन को आप्लावित करती रहेंगी, वह उसी में तन्मय, तत्पर, तद्भावमग्न रहेगा। उसके पवर-निजरारूप धर्म या सम्यग्ज्ञानादि चतुष्टय धर्म के पालन में सहायक पूर्वोक्त आलम्बन आवश्यकतानुसार ग्रहण करता हुआ भी इनके प्रति अन्तर से निर्लेप रहेगा, विरक्त रहेगा, उसकी मनोवृत्तियों में इनसे विरक्ति उदासीनता रहेगी। बिना षटकायिक जीवों, गण (धर्म-संघ) के सदस्यों, गृहपतियों, शासकवर्ग आदि सजीव पदार्थों से एक ओर से उसका सम्बन्ध रहेगा, दूसरी ओर से उन सम्बन्धों में राग-द्वेष मोह, कषायभाव तनिक भी न आने पाए, इसकी जागृति प्रतिक्षण रहेगी, १. धम्मस्स णं चरमाणस्स पंचनिस्साठाणा पण्णत्ता, तं.-छक्काए मणे, राया, गिहवइ, सरीरं।
-स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. ३, सू. ४४७
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