Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 485
________________ 8 मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४६५ * सफल हो सकता है। ‘भगवती आराधना' के अनुसार-जो संसार को गूंथते हैं, रचते हैं, दीर्घकालिक स्थिति वाला करते हैं, वे ग्रन्थ हैं। जैनागमों में बाह्य ग्रन्थ के १0 प्रकार वताए हैं-(१) धन, (२) धान्य, (३) क्षेत्र, (४) वास्तु, (५) हिरण्य, (६) सुवर्ण, (७) द्विपद, (८) चतुष्पद, (९) कुप्य धातु, और (१०) भाण्ड उपकरणादि। इन दस का संग्रह, परिग्रह करने से ममता-मूर्छा आदि होती है। वे प्रायः गृहस्थ के लिए परिग्रहरूप ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार साधु के लिये भी आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, शय्या, वसति, रजोहरण, पुस्तक, ग्रन्थ, क्षेत्र, शिष्य-शिष्या, भक्त-भक्ता, सम्प्रदाय-पंथ आदि बाह्य परिग्रहरूप ग्रन्थ बन सकते हैं, यदि वह इन पर ममता-मूर्छा-आसक्ति आदि रखता है। 'भगवती आराधना' में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय, अशुभ मन-वचन-काययोग, इन परिणामों को ग्रन्थ कहा गया है। 'ज्ञानार्णव' में इनसे भी अतिभयंकर १४ प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थ बताए हैं(१) मिथ्यात्व, (२-३-४) स्त्री-पुरुष-नपुंसकवेद, (५) काम, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) शोक, (१०) जुगुप्सा, और (११ से १४) क्रोधादि चार कषाय। 'धवला' में कहा गया है-“व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे आभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्यात्व आदि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है।" अतः साधक के लिए बाह्य ग्रन्थों की अपेक्षा आभ्यन्तर ग्रन्थ बहुत ही भयंकर और दुस्त्याज्य हैं। इनसे मुक्त होने का उसे तीव्रतर प्रयत्न करना चाहिए। तभी निग्रन्थता के राजमार्ग पर चलकर साधक मुक्ति के प्रथम सोपान पर आरूढ़ हो सकता है।' . बाह्य परिग्रह का त्याग होने पर मन में ग्रन्थों को पाने की ललक कभी-कभी ऐसा होता है, व्यक्ति बाह्य परिग्रहों का प्रचुर मात्रा में त्याग करके संयम-यात्रा के लिए आवश्यक साधनों के प्रति भी ममता-मूर्छा का त्याग कर देता १. (क) ग्रन्थंति रचयन्ति दीर्घाकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः। -भगवती आराधना वि. टीका ४३/१४१/१0 (ख) क्षेत्रं वास्तु धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं। कुप्यं भाण्डं हिरण्यं सुवर्णं च बहिर्दश। -दर्शनपाहुड टीका १४-१५ (ग) देखें-ज्ञानार्णव १६/१४, ६ में आभ्यन्तर ग्रन्थ के १४ भेदों की व्याख्या । (घ) ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, आब्अंतर-गंथकारणत्तादो। एदस्य परिहरणं णिग्गंथत्तं। णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादो गंथो, कम्मबंधकारणात्तादो। तेस्सिं परिच्चागो णिग्गंथत्तं। -धवला ९/४, १, ६७/३२३ (ङ) मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयमः कषायाः अशुभयोगत्रयं चेत्यमी परिणामाः ग्रन्थाः। __ -भगवती आराधना ४३/१४१/२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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