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* ४६८ * कर्मविज्ञान : भाग ८
उन सजीव पदार्थों को अपने निमित्त से किसी प्रकार का कष्ट न हो, हिंसादिरूप में विराधना न हो, इसकी अनुकम्पा उसके रोम-रोम में रहेगी और वीतराग प्रभु ने कर्मों के आस्रव और बन्ध के तथा संवर और निर्जरा के जो कारण और परिणाम बताए हैं, जीवादि नौ तत्त्वों के प्रति तथा देव-गुरु-धर्म और शास्त्र के प्रति पूर्ण आस्था होगी। इस प्रकार उक्त साधक अपनी संयम-यात्रा में सहायक यथावश्यक सभी सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति सम्बन्ध रखता हुआ भी अन्तर से उनसे निर्लिप्त, विरक्त, उदासीन रहेगा। निर्ग्रन्थता की सिद्धि के लिए वृत्तियों का ऊर्ध्वमुखीकरण ।
उसकी वृत्तियों में उदासीनता होगी, अर्थात् वह वृत्तियों का ऊर्ध्वमुखीकरण कर लेगा। वृत्तियों के अधोमुखी रुख के कारण ही वे अमुक पदार्थों के सेवन के लिए लालायित-प्रेरित होती हैं। जब वृत्तियों का ऊर्ध्वमुखीकरण हो जाएगा, तब किसी भी पर-पदार्थ ग्रहण के प्रति उसकी वृत्ति नहीं दौड़ेगी। उदाहरणार्थ-कुत्ता हड्डी को देखते ही चाटने लगता है, किन्तु हंस भूखा होने पर भी उसके सामने नहीं ताकता, क्योंकि उसने इससे उच्च प्रकार का रसास्वादन किया है। इस कारण उसकी वृत्ति उसमें नहीं जाती। इसी प्रकार निर्ग्रन्थता के अभ्यासी साधक की वृत्तियों का रुख ऊर्ध्वमुखी हो जाएगा, अनावश्यक तथा मोहक-आकर्षक विषयों, पर-पदार्थों या सजीव पर-प्राणियों के प्रति या दूर व निकट के सभी निरर्थक पदार्थों व भावों के प्रति तो उसकी वृत्ति जाएगी ही नहीं, संयम-यात्रा के लिए सहायक व्यक्तियों, समूहों तथा आवश्यक उपकरणों के प्रति सम्बन्ध रखते हुए भी वह निःस्पृह, निर्लिप्त, निराकांक्ष रहेगा। तभी वह शुद्ध आत्माके स्वभाव में स्थित रह सकेगा, निर्ग्रन्थता साध सकेगा। तृतीय सोपान : शरीर के प्रति किंचित् भी मूर्छा : निर्ग्रन्थता में बाधक
इस प्रकार साधक जब निर्ग्रन्थता की साधना करता है, तब कई बार उसे यह भ्रम हो जाता है कि मैं बाह्य सम्बन्धी जनों तथा संयमोपकारक पदार्थों के प्रति तो मेरा आसक्तिमय लगाव कम हो गया, किन्तु शरीर तो मेरा अतिनिकटवर्ती साथी है, संयम-पालन या धर्म-पालन में सहायक है, इस धर्मसाधक शरीर को टिकाए रखने तथा शरीर को सुरक्षित रखने के लिये मैं यह या वह उपाय करता हूँ। इस या ऐसे बहाने से अगर शरीर के प्रति चिन्ता करता रहता है तो निर्ग्रन्थता खटाई में पड़ जाएगी। क्योंकि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए संयममय, यत्नाचारपूर्वक प्रयत्न करना जायज बात है, किन्तु शरीर-स्वस्थता की ओट में शरीर को मोटा,
१. सर्वभावथी औदासीन्यवृत्ति करी, मात्र देह ते संयम हेतु होय जो।
अन्य कारणे अन्य कशुं कल्पे नहीं, देहे पण किंचित् मूर्छा नव जोय जो॥अपूर्व.॥२॥
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