Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 486
________________ ४६६ कर्मविज्ञान : भाग ८ है, अथवा बाह्य परिग्रहों की मर्यादा कर लेता है; किन्तु दूसरों के पास सुन्दर एवं मनोरम्य वस्त्र, आभूषण, सुगन्धित पदार्थ, आलीशान बंगले, उत्कृष्ट शय्या, साज-सज्जा या सौन्दर्य प्रसाधन की साधन-सामग्री, वाहन, सुन्दरियों एवं भोगोपभोग सामग्री की प्रचुरता, धन-सम्पत्ति की प्रचुरता देखकर मन ही मन उन्हें पाने की लालसा, तृष्णा या वासना करता है या उन वस्तुओं के स्वामी के प्रति ईर्ष्या करता है, तो ऐसे व्यक्ति या साधक को ग्रन्थ-त्यागी या निर्ग्रन्थता का साधक नहीं कहा जा सकता ।' ऐसे व्यक्ति के जीवन में ग्रन्थ-मुक्ति या निर्ग्रन्थता की साधना तब तक सफल नहीं होती, जब तक कि वह स्वेच्छा से, अन्तर्मन से, बिना किसी के दबाव या भय से, अथवा किसी के प्रलोभन के वशीभूत न होकर वस्तु पास में न हो, अथवा सहजता से प्राप्त हो सकती हो, फिर भी बाह्य ग्रन्थों का त्याग कर देता है, यानी वह पूर्वोक्त १४ प्रकार के आभ्यन्तर ग्रन्थों के परिप्रेक्ष्य में त्यक्त अथवा संयम- यात्रा के लिये गृहीत बाह्य ग्रन्थों ( सजीव - निर्जीव वस्तुओं) भोगोपभोग पदार्थों की मन से भी - अन्तःकरण से भी पाने या भोगने की इच्छा नहीं करता । " मणसा वि न पत्थए । " - मन से भी उन पर - पदार्थों को पाने की अभ्यर्थना-अभिलाषा नहीं करे। इस सूत्र को सदैव दृष्टिगत रखकर विचरण करता है। कदाचित् मन में किसी त्यक्त या गृहीत वस्तु के प्रति अहंता-ममता या स्वामित्व की भावना या इच्छा अथवा ललक उठे तो उसे 'दशवैकालिकंसूत्र' के इस राग-त्याग के सूत्र के अनुसार मन में तुरन्त सावधान होकर 'मिच्छामि दुक्कडं' के चिन्तन करना चाहिए- “न सा महं, नो वि अहं पि तीसे । " - न तो मैं, यह वस्तु या व्यक्ति मेरी है और न ही मैं उसका हूँ।' 'आचारांगसूत्र' के अनुसार " एगो अहमंसि, न मे अत्थि कोइ, न चाहमवि कस्सइ । एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं आगममाणे॥”३ -मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, न ही मैं किसी का हूँ। शेष सब बाह्य भाव (सजीव-निर्जीव पदार्थ) संयोग रूप हैं, कर्मोपाधिक हैं। इस प्रकार अपने आप को आत्म-बाह्य समस्त सजीव-निर्जीव पर-पदार्थों से पृथक् सम्यक् प्रकार से जाने और लाघव (हलकापन) लाए, प्राप्त करे। इन दोनों सूत्रों के अनुसार रागभाव का त्याग करे | 9 जे य कंते पिए भोए लद्धे विपिट्ठीकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, सेहु चाइत्ति वुच्चइ ॥३॥ वत्थ-गंधमलंकारं इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्चइ ॥२॥ २. दशवैकालिक, अ. २, गा. ४ ३. आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, उ. ६, सू. ७५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only - दशवैकालिक २/३, २ www.jainelibrary.org

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