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* मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान ४७१
न हुआ तो, इस प्रकार का शरीर और आत्मा की भिन्नता का बोध होता है, कभी अनुभूत न हुआ हो, ऐसा अनुभव होता है । देहभिन्न चैतन्य का ज्ञान ही सम्यक्दर्शन है।
देह से भिन्न एकमात्र चैतन्य के दर्शन कितने दुर्लभ, कितने सुलभ ? इसलिए दृष्टि में विलसित चैतन्यभाव देखने की गुप्त शक्ति जाग्रत न हो, यानी बाहर के पार्थिव-पटल को भेदन कर अन्तरंग चक्षु न खुलें, वहाँ तक देह से चैतन्य भिन्न है, ऐसा ज्ञान ही स्फुरित नहीं होता और जब तक ऐसा ज्ञान स्फुरित न हो, तब तक दृष्टि में निरन्तर चैतन्य के अमृत - झरने बह नहीं सकते । अतः देह से भिन्न चैतन्य के दर्शन करने के लिए देह की अत्यन्त गहराई में निगूढरूप से जो चैतन्य का प्रकाश चमक रहा है, उसे दृष्टि को दिखाकर उसको उज्ज्वल बनानी होगी । अत्यन्त गहराई में इसलिए कि देह से लेकर आत्मा के द्वार तक पहुँचने के लिए बीच में मन, प्राण, चित्त और बुद्धि के क्षेत्रों की अथाह नहरें इतने भँवरजालों और प्रलोभनों की भयंकरता से परिपूर्ण हैं कि उस सँकड़ी पगडंडी में से साधना की नौका को चैतन्य के ज्ञानरूप तट तक सही-सलामत पहुँचाना अतीव दुष्कर है।
देह से भिन्न केवल चैतन्य का अनुभवात्मक ज्ञान सुदृढ़ होने पर
देह से भिन्न तो आत्मा के सिवाय अनेक अन्तःकरण - बाह्यकरण हैं, कहीं साधक की दृष्टि उनमें न उलझ जाए, इसलिए शरीर से भिन्न केवल चैतन्य का • सुदृढ़ अनुभवात्मक ज्ञान ही दर्शनमोह के सागर को पार करने के लिए अभीष्ट है । ' ऐसा न होने पर देह ही चैतन्य है, इस प्रकार का आभास अवचेतन मन में होते रहने से मोहक पदार्थ शृंगारिक चित्र, स्वादिष्ट खान-पान, झूठी प्रशंसा का श्रवण आदि इन्द्रियों और मन के विषय उसे आकर्षित करते रहेंगे और उनमें वह सुखानुभूति करने लगेगा।
दृष्टिमोह दूर होने पर ही चारित्रमोह की क्षीणता संभव
भवसागर से पार उतरने में बाधक कारण दो हैं - दृष्टिमोह और चारित्रमोह । दृष्टिमोह में असद्भावना, कुविचार, अधम अध्यवसाय, कुविकल्प, दुष्ट परिणति, मिथ्यादृष्टि, कदाग्रह एवं पूर्वाग्रह आदि का समावेश होता है । दृष्टिमोह के कारण देवूढ़ता गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता, समय (सिद्धान्त) मूढ़ता, शास्त्रमूढ़ता एवं लोकमूढ़ता आदि तथा जीव धर्म, साधु, मुक्त, संसारमार्ग तथा अधर्म, असाधु, - दशवैकालिकसूत्र
१. अवि अप्पणो वि देहमि, नायरंति ममाइयं ।
२. (क) 'सिद्धि के सोपान से' साभार उद्धृत, पृ. ९, ११
(ख) मोहनीय कर्म के मुख्य दो भेद हैं- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं- सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय |
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