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(अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से प्रमत्त संयत गुणस्थान तक
मुक्ति के आध्यात्मिक सोपान
मुक्ति की साधना के सोपान : एक चिन्तन ___ मुमुक्षु और आत्मार्थी साधक का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति, सिद्धि, मोक्ष या अपवर्ग है। मुक्ति का अर्थ है-आत्मा के साथ लगे हुए पर-भावों, विभावों या कर्म-पुद्गलों से आत्मा का सर्वथा पृथक् हो जाना या आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाना। किन्तु चाहे व्यक्ति सम्यग्दृष्टि हो, देशविरत हो, सर्वविरत हो, अप्रमत्त संयत हो, चाहे इससे भी उच्च दशम गुणस्थान तक में स्थित ही हो, जब तक संसारदशा में है, तब तक तन, मन, वाणी, बुद्धि, हृदय, इन्द्रियों से तथा विभिन्न सजीव-निर्जीव पदार्थों से उसका एक या दूसरे प्रकार से वास्ता पड़ेगा ही, भोजन, वस्त्र, मकान तथा अन्य उपकरणों आदि निर्जीव पदार्थों तथा परिवार, ग्राम, नगर, संघ, सम्प्रदाय, समाज, प्रान्त, राष्ट्र या अन्य राष्ट्रों, अन्य धर्म-सम्प्रदायों आदि के सजीव व्यक्तियों से भी एक या दूसरे प्रकार से संयोग भी आएगा। अतः इनसे (पर-पदार्थों से) अलग-थलग रहकर या किनाराकसी करके व्यक्ति एकान्त जगह में, अकेला, प्रच्छन्न, मौन और शान्त होकर एक कोने में दुबककर कैसे बैठ जाएगा? ऐसी स्थिति में कोई भी मुमुक्षु साधक अपनी आत्मा से पर-भावों तथा कषायादि या राग-द्वेषादि विभावों (विकारों) को कैसे सर्वथा दूर कर सकेगा? अथवा आत्मा को शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव वस्तुओं से कैसे पृथक् कर सकेगा? अथवा स्वभाव को विभावों या पर-भावों से कैसे भिन्न कर सकेगा? अथवा तहदिल से, सर्वतोभावेन तलवार से म्यान की तरह आत्म-भाव और अनात्म-भाव की पृथक्ता का कैसे अनुभव प्राप्त कर सकेगा? भेदविज्ञान करके आत्मा में स्थायी स्थिरता कब और कैसे कर सकेगा? पर-भावों और विभावों, इन्द्रिय-विषयों के प्रति आसक्ति और अनासक्ति, कपायों-नोकपायों तथा गग-द्वेष-मोह, ईर्ष्या, मत्सर, मद आदि विभावों (मनोविकारों) के प्रति लगाव को सर्वथा दूर करके शुद्ध आत्म-भाव में एकाग्रता, रमणता या स्थिरता कैसे और किस क्रम से साधना करने से प्राप्त होगी? ऐसा न होने पर सर्वकर्मक्षयरूप या
आत्मा के शुद्ध स्वरूप या भाव में अवस्थानरूप मुक्ति, मोक्ष अथवा सिद्धि (लक्ष्यसिद्धि) दूरातिदूर होती जायेगी। इन्हीं सव समस्याओं, उलझनों और
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