Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 479
________________ ॐ मोक्षप्रापक विविध अन्तः क्रियाएँ: स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४४५९ होकर श्रवणेन्द्रिय प्राप्त होने से केवलि - प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण कर सकते हैं, मगर संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकी (केवलि प्ररूपित) वोधि (बोध) प्राप्त नहीं कर सकते । द्वि-त्रि- चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं। ये तथाविध भव - स्वभाव के कारण अन्तःक्रिया नहीं कर पाते; किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर वे अनगार बनकर मनः पर्यवज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं । ' अनन्तरागत या परम्परागत अन्तःक्रिया करने वालों की योग्यता. क्षमता और उपलब्धि का क्रम इसके अतिरिक्त भगवतीसूत्र में तथा स्थानांगसूत्र में उपासना से लेकर अक्रियासिद्धि (अन्तःक्रिया से मोक्ष प्राप्ति) तक के उत्तरोत्तर फल का निर्देश किया गया है, वह भी इसी तथ्य को उजागर करता है कि नारकादि भवों से भी आगामी मनुष्य-भव में अनन्तरागत या परम्परागत अन्तः क्रिया करने वाले जीव में उपासना, श्रवण, ज्ञान, विज्ञान (सम्यक्त्व) आदि की योग्यता होगी तो वह चाहे लघुकर्मा हो, गुरुकर्मा हो या गुरुतरकर्मा हो देर-सवेर से अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त और परिनिर्वृत हो सकता है। भगवतीसूत्र में तथा स्थानांगसूत्र में उपासना से अक्रिया और सिद्धि ( मुक्ति - प्राप्ति ) तक के उस पाठ का भावार्थ इस प्रकार है- "भंते ! तथारूप श्रमण अथवा माहन की पर्युपासना करने वाले को उस पर्युपासना का क्या फल मिलता है ?” “गौतम ! पर्युपासना का फल सद्धर्म-श्रवण है ।" "भंते ! धर्म-श्रवण का क्या फल है ?" "धर्म-श्रवण का फल ज्ञान ( सम्यग्ज्ञान) की प्राप्ति है।" "भंते ! ज्ञान-प्राप्ति का क्या फल होता है ?" 'ज्ञान-प्राप्ति का फल विज्ञान ( उपादेय- हेय के विवेक अथवा सम्यग्दृष्टि ) की उपलब्धि है ।" "भंते ! विज्ञान प्राप्ति का क्या फल होता है ?” “विज्ञान प्राप्ति का फल प्रत्याख्यान (हिंसादि पापों का त्याग करना) है ।" "भंते ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ?" "प्रत्याख्यान का फल संयम है।" "भंते ! संयम का क्या फल है ?" " संयम का फल है - अनास्रव (कर्मों के आनव का निरोध ) । " "भंते ! अनास्रव का क्या फल होता है ?" 'अनास्रव का फल तप है ।" "भंते! तप का क्या फल होता है ?" "तप से व्यवदान ( कर्मनिर्जरा) होता है।" "भंते ! व्यवदान का क्या फल होता है ?” “व्यवदान ( उत्कृष्ट सकामनिर्जरा से समस्त कर्मों का क्षय होने ) से अक्रिया (अर्थात् अन्तःक्रिया = कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने से मन-वचन-काया १. ( क ) प्रज्ञापना, खण्ड २ पद २० द्वार ४ ( उद्वृत्तद्वार) सू. १४१७-१४४३ (ख) प्रज्ञापना, विवेचन ( आ. प्र. स., ब्यावर ), खण्ड २, पद २०, द्वार ४, सू. १४१७-१४४३, पृ. ३९८ (ग) प्रज्ञापना, मलय वृत्ति, पत्र ४00-४0२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534