Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 480
________________ ॐ ४६० 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ के योगों का पूर्ण निरोध = अयोग स्थिति) प्राप्त होती है।" "भंते ! अक्रिया में क्या फल प्राप्त होता है?' इसके उत्तर में 'भगवतीसूत्र' में तो सीधा उत्तर दिया गया है-“अक्रियावस्था से सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त होती है। जिससे जन्म-मग्णादि, समस्त शरीरादि तथा कर्मों का अवसान (अन्त) हो जाता है।'' 'स्थानांगसूत्र' में वताया है-“अक्रिया का फल निर्वाण है।'' "भंते ! निर्वाण का क्या फल है?" “आयुष्मन् श्रमण ! निर्वाण का फल सिद्धिगति (सर्वकर्ममुक्ति) को प्राप्त करके संसार-परिभ्रमण (जन्म-मरणादि) का अन्त करना है।" 'भगवतीसूत्र' में इस प्रश्नोत्तरी के अन्त में उत्तरोत्तर उत्कृष्ट फल-प्राप्तिसूचक एक गाथा दी गई है-. “सवणे णाणे य विण्णाणे पच्चखाणे य संजमे।। अणण्हए तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी॥" . यहाँ दोनों प्रकार से अन्तःक्रिया (अक्रिया) करने वाले नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव; चारों गतियों एवं योनियों के तथा एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों की उपलब्धियों के सम्बन्ध में विचार करने पर पूर्व पृष्ठ में चतुर्विंशति दण्डकवर्ती जीवों की योग्यता, क्षमता और उपलब्धियों के विषय में की गई प्ररूपणा के साथ संगति बैठ जाती है। एकेन्द्रिय श्रवण नहीं कर सकते, किन्तु भावमन से विचार कर सकते हैं। ज्ञानांश होता है, उनमें भी। विकलेन्द्रिय भी श्रवणेन्द्रिय न होने से भले ही श्रवण न कर सकें, उनमें भी ज्ञान हो सकता है। बाकी तिर्यंच पंचेन्द्रियोंउपासना, श्रवण आदि से लेकर प्रत्याख्यान तक की उपलब्धि हो सकती है। देवों में उपासना, श्रवण, ज्ञान, विज्ञान तक की उपलब्धि हो सकती है। नारकों में भी क्षायिक सम्यक्त्व तक की उपलब्धि हो सकती है। और मनुष्यों में तो उपासना से लेकर अकिरिया सिद्धि तक की उपलब्धि और क्षमता प्राप्त हो सकती है। किन्तु अन्तःक्रिया करने वाले तथारूप मनुष्य ही हो सकते हैं, बशर्ते कि उनमें पूर्व पृष्ठों में उक्त अर्हताएँ हों और अन्तःक्रिया के पश्चात् तो मोक्ष-प्राप्ति अवश्यम्भावी है ही। १. (क) देखें-भगवतीसूत्र, श. २, उ. ५, सू. १११ में वह पाठ (ख) देखें-स्थानांगसूत्र, स्था. ३, उ. ३, सू. ४१८ तथा उस पाठ का अर्थ, भावार्थ (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. १६८-१७० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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