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४४० कर्मविज्ञान : भाग ८३
कमर कस ली है। जो संसार-सागर को पार करके मोक्ष के तट पर पहुँच गया है। जो मोक्ष - प्राप्तिरूपा अन्तः क्रिया के लिए कटिबद्ध होकर मजबूत कदमों से मोक्ष की ओर अहर्निश गति-प्रगति कर रहा है। वह देह - निरपेक्ष जीवन-निरपेक्ष, प्रसिद्धि-प्रशंसा-पूजा-सत्कार - नामना - कामना आदि से सर्वथा निरपेक्ष होकर एकमात्र मोक्ष की ही आराधना में तत्पर रहता है। मोक्ष का ही ध्यान, चिन्तन, मनन करता है, मोक्ष के ही अनुष्ठानों में रुचि रखता है, मोक्ष की ही क्रिया उसके द्वारा सहज होती रहती है, मोक्ष का ही वह उपदेश देता है। संसार से या सांसारिक सम्बन्धों से कोई वास्ता नहीं रखता। ऐसे महान् महावीरता - सम्पन्न साधक को मोक्षाभिमुख कहा. जा सकता है। ऐसे ही मोक्षाभिमुख साधक अन्तः क्रिया करने में सफल होते हैं । '
अन्तःक्रिया करने वाले मोक्षाभिमुख साधक की पहचान
'सूत्रकृतांगसूत्र' में अन्तःक्रिया की तैयारी करने वाले मोक्षाभिमुख साधक की पहचान बताते हुए कहा गया है - पूर्वोक्त मोक्षाभिमुखी साधक जीवन (असंयमी जीवन या प्राणधारणरूप जीवन) के प्रति निरपेक्ष होकर ज्ञानावरणीयादि अष्टविध कर्मों का अन्त (क्षय) कर लेते हैं, यानी वे जीने की इच्छा का त्याग करके ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का अथवा घाति - अघाति कुल ८ कर्मों का अन्त करने में तत्पर रहते हैं। तात्पर्य यह है कि वे जीवन- निस्पेक्ष साधक उत्तम ज्ञान-दर्शन- चारित्र - तपरूप मोक्षमार्ग की साधना-आराधना करके संसार - सागर के अन्तस्वरूप, समस्त द्वन्द्वों के अभावरूप (भाव) मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । यद्यपि वे मोक्षाभिमुखी साधक समस्त दुःखों की निवृत्तिरूप या सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को अभी तक प्राप्त नहीं कर सके हैं, तथापि तप-संयम आदि की तथा निश्चय सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की विशिष्ट धर्मसाधना के द्वारा मोक्ष के सम्मुख हैं और चार प्रकार के घातिकर्मों का क्षय करके दिव्य ज्ञान से युक्त एवं मोक्षपद के अभिमुख हैं।
मोक्ष-प्रापिणी अन्तःक्रिया करने वाले साधक के विशिष्ट गुण
ऐसे मोक्षाभिमुख साधक का मोक्षमार्ग पर अनुशासन आधिपत्य होता है। यानी जिनका मोक्षमार्ग पर इतना असाधारण अधिकार होता है कि वे संसारमार्ग की ओर जरा भी मुड़ते नहीं। उनकी गति, मति और प्रगति एकमात्र मोक्ष की ओर अटल होती है। वे मोक्षमार्ग का ही उपदेश देते हैं। मोक्षमार्ग का अनुशासक या
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(क) देखें - सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. १०-१५ की पूर्वभूमिकायुक्त व्याख्या, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९६७-९६८
(ख) जीविये पिट्ठिओ किच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं । कम्णा सम्मु भूता, जे मग्गमणुसासई ॥
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- सूत्रकृतांग, अ. १५, गा. १0
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