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मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता @ ४३९ ।
मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करने वालों की अर्हताएँ लोकोत्तर अन्तःक्रिया करने वाला आत्मा के मुख्य गुणों-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्यावाध आत्मिक-सुख एवं अनन्त आत्म-शक्ति से सम्पन्न हो जाता है, तब वह 'सूत्रकृतांग' की गाथा के अनुसार-उसके नवीन कर्मों का वन्ध सर्वथा रुक जाता है। उस समय केवलज्ञान के प्रकाश में वह अष्टविध कर्मों, उनके कारणों और फलों को भलीभाँति जान लेता है, साथ ही कर्मों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के रूप में होने वाले वन्धों तथा उनसे सम्बद्ध उदय, उदीरणा, सत्ता आदि को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है। इसके अतिरिक्त कर्मों के निरोधरूप संवर और कर्मों के अंशतः क्षयरूप निर्जरा के उपायों और अपायों को भी अच्छी तरह जानकर कमविदारण करने में समर्थ वह महान् वीर पुरुष ऐसा पराक्रम करता है, जिससे घाति-अघाति कुल के समस्त कर्मों का वह क्षय कर डालता है। इस प्रकार अन्तःक्रिया (कर्मों का सर्वथा अन्त, जन्म-मरणादि रूप त्रिविध शरीरों का अन्त एवं समस्त दुःखों का अन्त) कर पाता है। इसीलिए कहा गया है कि मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करने के बाद वह न तो संसार में पुनः जन्म लेता है और न ही मरता है। अर्थात् वह जन्म-मरण का सर्वथा अन्त कर डालता है।'
ऐसा मोक्षाभिमुख साधक ही अन्तःक्रिया करने में सफल होता है मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करने वाले मुमुक्षु साधक पहले मोक्षाभिमुख होते हैं। मोक्षाभिमुखी साधना कैसी होती है और उसके लिए क्या-क्या पराक्रम अपेक्षित हैं ? इसका निरूपण 'सूत्रकृतांगसूत्र' की छह गाथाओं में किया गया है। उनका भावार्थ इस प्रकार है-जिनका मुख मोक्ष की ओर हो गया है, वह अब संसार तथा संसार के विषयभोगों, सुख-सुविधाओं, लुभावनी भोग-सामग्री, उत्तम स्वादिष्ट आहार-पानी, सुन्दर मकान, शरीर-प्रसाधन, साज-सज्जा आदि की ओर झाँककर भी नहीं देखता। अर्थात् वह संसार या संसार के बन्धन में डालने वाले कर्मों या कारणों से विमुख हो गया है। इस प्रकार वीर वनकर जिसने संसार या संसार के जन्म-मरणादि बंधन में डालने वाले कर्मों तथा कर्मों के कारणों = आम्रवों तथा राग-द्वेष, कषायादि को नष्ट करने या पूर्ववद्ध कर्मों की निर्जरा करने के लिए
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(ख) ज्ञानिनो धर्मतीर्थम्य कर्तारः परमं पदम्। . गत्वाऽऽगच्छंति भूयोऽपि भवं तीर्थ निकारतः।।
-अमरसुखवोधिनी व्याख्या में उद्धृत, पृ. ९६) १.. (क) देखें-मूत्रकृतांगसूत्र. शु. १. अ. १५, सू. ७ के उत्तरार्द्ध का विवेचन.
अमरसुखवोधिनी व्याख्या में. पृ. ९६१ (ख) 'विन्नाय से महावीरे. जे न जायइ. ण मिज्जई' का भावार्थ, पृ. ९६०)
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