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@ ४३८ @ कर्मविज्ञान : भाग ८ 0
फिर उत्पन्न हो सकते (जन्म ले सकते) हैं ? कदापि नहीं। क्योंकि जन्म-मरण के .. कारणभूत उनके समस्त कर्म नष्ट हो गए हैं। अतः उनके वापस लौटकर संसार में आने और जन्म-मरण करने का कोई भी कारण नहीं है।' अन्तःक्रिया करने वाले पुनः संसार में लौटकर नहीं आते ___ इस युक्ति, आगमोक्ति और अनुभूति से उन दार्शनिकों और धर्म-मतों की इस . मान्यता का खण्डन हो जाता है कि “सर्वकर्मक्षय हो जाने (मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करने के पश्चात् वे ज्ञानी पुरुष भी जब अपने धर्मतीर्थ (संघ) की अवेहलना होती देखते हैं, तो पुनः संसार में लौटकर आ जाते हैं।" यह मान्यता न . . तो युक्तिसंगत है और न सत्य ही, क्योंकि जव अन्तकृत् महापुरुष समस्त क्रियाओं का अन्त कर देते हैं, उन क्रियाओं के कारणभूत उसके मन-वचन-कायारूप त्रिविधयोग भी नष्ट हो जाते हैं और वह तन-मन-वचन से कोई भी कार्य (व्यापार) : नहीं करता। ऐसी स्थिति में उनके ज्ञानावरणीयादि नवीन कर्मों के बन्ध की कोई गुंजाइश ही नहीं रहती। दर्शनशास्त्र का यह नियम है कि कारण का जव अभाव हो जाता है तो कार्य का अभाव स्वतः ही हो जाता है। अन्तःक्रिया करके मुक्ति में पहुंचे हुए महापुरुष के कर्मों का जब सर्वथा अभाव हो जाता है, तब कर्मों के अभाव में वह संसार में पुनः कैसे आ सकते हैं ? क्योंकि कर्म ही संसार का कारण है और फिर मुक्त जीव सभी संगों, संयोगों, आसक्तियों, बन्धनों, ग्रन्थियों, राग-द्वेष, मोह-द्रोह आदि द्वन्द्वों से रहित हो जाता है, तब उसका अपना-पराया कुछ भी नहीं होता। वह यदि स्व-पर की मोह-ममता में, पक्षपात में पड़ जाएगा तो पुनः राग-द्वेष से लिप्त हो जाएगा। अतः राग-द्वेष-मोह से सर्वथा मुक्त वीतराग महापुरुष को अपने तीर्थ की निन्दा-प्रशंसा या अवहेलना से कोई सरोकार नहीं रहता, न ही ऐसा पक्षपातयुक्त विचार आता है।
१. (क) अकुव्वओ णवं णत्थि, कम्मं नाम विजाणइ।
विनाय से महावीरे, जेण जायइ पमिज्जइ॥ -सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १५, गा. ७ (ख) देखें-इस गाथा का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९६०-९६१ (ग) दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः।
कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः।। -सूत्रकृतांग, विवेचन, पृ. ९७५ (घ) जहा दड्ढाणं वीयाणं, न जायंति पुणंकुरा।
कम्मबीएसु दड्ढेसु, न जायंति भवंकुरा॥ -दशाश्रुतस्कन्ध, पंचमी दशा, गा. १२३ (ङ) कओ कयाइ मेहावी, उप्पज्जंति तहागया।
तहागया अपडिन्ना, चक्खू लोगस्सणुत्तरा॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. २० (च) देखें-इस गाथा का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९७६ ।। २. (क) देखें-सूत्रकृतांगसूत्र, श्रु. १, अ. १५, गा. ७ का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या
में, पृ. ९६०-९६१
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