________________
ॐ ४५२
कर्मविज्ञान : भाग ८ 0
पुण्यवल एवं भुजवल से चक्रवर्ती पद पाया। सनत्कुमार चक्रवर्ती का शरीर-मौन्दर्य अनुपम था।
एक वार सौधर्मेन्द्र ने सनत्कुमार की रूप-सम्पदा की प्रशंसा की. जिसे पहन न कर सकने से दो विप्रवेशधारी देव उनकी वास्तविकता जानने हेतु आए। व्यायाम करके ज्यों ही सनत्कुमार वाहर आए, त्यों ही उन्हें देखकर विप्रवेशी देव वोले'आपके अनुपम सौन्दर्य की जैसी चर्चा सुनी थी, उससे भी अधिक है आपकी रूप-सम्पदा।" चक्रवर्ती अपनी प्रशंसा गर्वीत होकर वोले-'अभी तो मेग रूप धूलि-धूसरित है, जव में स्नानादि करके वस्त्राभूपणों से सुसज्जित होकर गजसभा में सिंहासन पर बै, तव मेरे रूप को देखना।" विप्रवेशी देव वीकृतिसूचकं सिर हिलाकर चले गए। जव चक्रवर्ती सिंहासनासीन होकर वैठे थे, तभी वे दोनों विप्रवेशी देव आए। उन्हें देखर चक्रवर्ती ने गर्वोन्मत्त होकर कहा-'अव देखो मेग रूप ! वताओ, मेरा शरीर-सौन्दर्य कितना अनूठा लगता है ?" दोनों ने सिर हिलाकर निःश्वास लेते हुए कहा--"राजन् ! अव वैसा रूप नहीं रहा। अव आपका शरीर सोलह भयंकर रोगों से आक्रान्त हो गया है। विश्वास न हो तो पीकदानी में थूककर देख लें।" चक्रवर्ती ने ऐसा ही किया और देखा तो अपने थूक में कीड़े कुलवुलाते हुए नजर आए। यह देख चक्रवर्ती का रूपगर्व विलकुल उतर गया। शरीर को क्षणभंगुर और असार जानकर वे विरक्त होकर मुनिधर्म में प्रव्रजित हो गए। अब उन्हें ज्ञानादि चतुष्टय की निर्दोष निरतिचार आराधना-साधना से कई लब्धियाँ प्राप्त हो गईं, वे चाहते तो रोगों को मिटा सकते थे। परन्तु उन्होंने रोगों के साथ मैत्रीभाव स्थापित किया और सोचा-रोग मेरे आत्म-कल्याण में कर्मक्षय करने में मित्र-सहायक हैं। इन्हें समभाव से भोगने से ही मेरी कर्मनिर्जरा होगी। अतः शरीर से निरपेक्ष होकर रोगों की असह्य वेदना भोगते हुए वे ज्ञानादि पंचाचार में तल्लीन रहे। वे दोनों देव इन्द्र के मुख से उनकी तितिक्षा की प्रशंसा सुनकर पुनः परीक्षा के लिये वैद्य का रूप बनाकर आए और कहने लगे"मुनिवर ! हम वैद्य हैं। आपके रोगों की चिकित्सा करके आपको स्वस्थ कर देंगे।' सनत्कुमार मुनि बोले-“वैद्यो ! मुझे शरीर के रोगों की चिन्ता नहीं है, उन्हें तो मैं जब चाहूँ तभी मिटा सकता हूँ। मैं कमरोगों को मिटाने में अहर्निश जुटा हुआ हूँ। कर्मरोगों को आप मिटा नहीं सकते।" यों कहकर उन्होंने अपनी एक अंगुलि पर थूक लगाया तो वह रोगरहित होकर चमकने लगी। यह देख दोनों आश्चर्यचकित देव अपने मूलरूप में प्रगट हुए और मुनि को वन्दन करके उनकी समाधि और तितिक्षा की भूरि-भूरि प्रशंसा करके चले गए। इस प्रकार सनत्कुमार मुनि ने 900 वर्षों तक बाह्याभ्यन्तर तपश्चरण और समभावपूर्वक वेदना सहन की और सर्वकर्मक्षय करके अन्तःक्रिया की एवं सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए। इस प्रकार पूर्वबद्ध गुरुतर सघन कर्मों के सहित आए सनत्कुमार ने दीर्घकाल तक साधु-पर्याय
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org