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ॐ ४५४ कर्मविज्ञान : भाग ८४
वहाँ समवसरण में भगवान ऋषभदेव को देवों और मनुष्यों के अपार समूह के. वीच विराजमान देखा तो समवसरण की शोभा और तीर्थंकरोचित वैभव एवं ऐश्वर्य का चिन्तन करते-करते मरुदेवी अन्तर की गहराई में डूब गईं। सांसारिक सम्बन्धों की निःसारता की अनुभूति होने लगी। मोह नष्ट हो गया । धर्मध्यान का चिन्तन करते-करते शुक्लध्यान की क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हो गईं। चार घातिकर्मों के क्षय के साथ-साथ कैवल्य - प्राप्ति हुई। कैवल्य-प्राप्ति के कुछ क्षण वाद ही शेष चार अघातिकर्म भी नष्ट हो गए और वे अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गईं।
मरुदेवी माता अत्यल्पकर्मा थीं, उन्हें तनिक भी वेदना का अनुभव नहीं हुआ, नही अधिक काल तक भावसंयम में रहना पड़ा। भगवान ऋषभदेव ने कहा“मरुदेवी सिद्ध हो गई। इस अवसर्पिणीकाल की वे प्रथम विदेहमुक्त सिद्ध हैं।" यह चतुर्थ अन्तःक्रिया का उदाहरण है । '
सर्वकर्ममुक्त चारों अन्तःक्रियाओं में से किसी एक से हुए हैं, होंगे
उत्तराध्ययनसूत्र, औपपातिक, अनुत्तरोपपातिक, प्रज्ञापना, भगवतीसूत्र तथा अन्तकृद्दशांगसूत्र आदि आगमों में वर्णित जो भी व्यक्ति आज तक सर्वकर्ममुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध हुए हैं, भविष्य में होंगे अथवा वर्तमान में जो अन्तःक्रिया की साधना कर रहे हैं, वे सब उक्त चार कोटि की अन्तः क्रियाओं में से किसी भी एक प्रकार की अन्तःक्रिया करके ही मुक्त हुए हैं और भविष्य में होंगे । २
कर्मविदारण में वीर साधक भी
मोक्षाभिमुखी बनकर अन्तःक्रिया करते हैं
'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा है- " ऐसे कर्म का विदारण करने में समर्थ बहुत-से वीर साधक भूतकाल में हो चुके हैं, भविष्य में भी उत्तम संयम का अनुष्ठान करने वाले बहुत-से साधक होंगे, वर्तमान में भी वैसे वीर साधक हैं, जिन्होंने दुःख से प्राप्त करने योग्य सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग की अन्तिम सीमा ( पराकाष्ठा ) पर पहुँचकर दूसरों के समक्ष उस मार्ग को प्रकाशित किया एवं पूर्वकंथित मोक्षाभिमुखी बनकर स्वयं उसका आचरण किया और संसार - सागर से पार हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे। " ३
१. (क) देखें - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उसहचरियं, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित में माता मरुदेवी का जीवन-वृत्तान्त
(ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भाव ग्रहण, पृ. २१-२२
२. स्थानांगसूत्र, विवेचन, स्था. ४, उ. १ (आ. प्र. स., ब्यावर ), पृ. २०२-२०३
३. (क) अभविंसु पुरा धीरा, आगमिस्सा हि सुव्वया ।
दुन्निबोहस्स मग्गस्स, अंते पाउकरा तिने ॥
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- सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. २५
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