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मोक्षप्रापक विविध अन्तःक्रियाएँ: स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ३४५३ ॐ
में रहकर तपश्चरणपूर्वक दीर्घकाल तक तीव्र वेदना सहन की, सर्वकर्मों का क्षय किया, यह तीसरी अन्तःक्रिया का उदाहरण है।'
चतुर्थ अन्तःक्रिया
चौथी अन्तः क्रिया इस प्रकार है - जिसमें कोई मनुष्य अत्यल्प कर्मों के सहित मनुष्य-भव को प्राप्त होता है । फिर वह मुण्डित होकर ( या मन-वचन काया के योगों के निरोधरूप संयम ग्रहण कर ) ( गृह त्यागकर अनगारत्व - भाव-संयम-ग्रहण कर प्रव्रजित होता है) संयम - बहुल, संवर- बहुल, समाधि-वहुल, रूक्ष, तीरार्थी, उपधानवान्, सर्वदुः खक्षयी एवं तपस्वी होता है।
उसके न तो इस प्रकार का घोर तप होता है और न इस प्रकार की घोर वेदना होती है। इस प्रकार का व्यक्ति अल्पकालिक संयम - पर्याय ( मन-वचन-काया के योग-निरोधरूप भाव-संवर) से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सर्वदुःखों का अन्त कर देता है। जैसे कि भगवती मरुदेवी । यह चौथी अन्तःक्रिया है ।
आशय यह है कि इस चतुर्थ अन्तः क्रिया में न तो अधिक तपश्चरण होता है, न ही किसी प्रकार की वेदना भोगनी पड़ती है, न दीर्घकाल तक संयम - पर्याय का पालन करना पड़ता है। यहाँ तक कि केवलज्ञान - पर्याय भी अधिक समय तक नहीं रहती, कैवल्य-प्राप्ति के पश्चात् शीघ्र ही आयु पूर्ण होने से वह व्यक्ति अन्तःक्रिया करके सिद्ध-बुद्ध - मुक्त हो जाता है । इस अन्तः क्रिया के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत ' है - भगवती मरुदेवी माता की अन्तः क्रिया । माता मरुदेवी ने किंचित् भी कष्ट नहीं भोगा । यहाँ तक कि व्यवहारदृष्टि से प्रव्रज्या भी ग्रहण नहीं की, केवल भावदीक्षित भावसंयमी रहीं और मुक्त हो गईं।
भगवती मरुदेवी युगादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की जननी थीं। भगवान ऋषभदेव ने जब समाज-व्यवस्था और राज्य व्यवस्था स्थापित करने के पश्चात् श्रमण दीक्षा ग्रहण कर ली और गृह- त्याग करके चले गए। तब से माता मरुदेवी अपने पुत्र ऋषभदेव की चिन्ता में व्यथित - चिन्तित रहने लगीं। बार-बार अपने पौत्र भरत (चक्रवर्ती) से ऋषभदेव के समाचार जानने के लिए उत्सुक रहतीं। जब यह समाचार ज्ञात हुआ कि ऋषभदेव को केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वह विनीता नगरी के बाह्य भाग में विराजमान हैं, तो मरुदेवी की उनसे मिलने की उत्सुकता और बढ़ गई। वह हाथी पर सवार होकर ऋषभदेव से मिलने हेतु सहर्ष - सोत्साह चल पड़ीं।
१. (क) देखें - उत्तराध्ययनसूत्र के १८ वें अध्ययन में सनत्कुमार चक्रवर्ती की कथा (ख) 'अन्तकृद्दशा महिमा' से भाव ग्रहण, पृ. १९-२०
२. (क) वही, पृ. २१-२२
(ख) स्थानांगसूत्र, विवेचन, स्था. ४, उ. १ (आ. प्र. समिति, ब्यावर ), पृ. २०२
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