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मोक्षप्रापक विविध अन्तः क्रियाएँ: स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४४७
कारण है कि अन्तः क्रियाएँ अनेक प्रकार की होती हैं। विभिन्न भूमिकाओं में स्थित आत्माएँ, विभिन्न निमित्तों के मिलने से अन्तःक्रियाएँ अनेक उपायों और मार्गों से होती हैं । 'स्थानांगसूत्र' के चतुर्थ स्थान में मुख्यतया चार प्रकार की अन्तः क्रिया उदाहरणपूर्वक प्रतिपादित की गई हैं। उस पाठ का भावार्थ इस प्रकार है
(मुख्यतया ) अन्तःक्रिया चार प्रकार की कही गई हैं । उनमें पहली अन्तःक्रिया यह है
प्रथम अन्तःक्रिया
प्रथम अन्तःक्रिया - कोई मनुष्य अल्पकर्मों के साथ ( पूर्व जन्म में तप, संयम आदि की आराधना से विशेष रूप से कर्मों के क्षय करने से अल्पकर्म शेष रह गए हों, वैसा लघुकर्मी (हलुकर्मी जीव अल्पकर्मा होकर) मनुष्य-भव को प्राप्त हुआ। वह विरक्त होकर द्रव्यभाव से मुण्डित होकर घर-बार त्यागकर अनगाररूप में प्रव्रजित हो जाता है। फिर . संयम - बहुल, संवर- बहुल और समाधि-बहुल होकर (संयम, संवर और ध्यान-समाधि की साधना-आराधना में विशेष रूप से उद्यत होकर), रूक्ष ( रूखा-सूखा आहार करने वाला या स्नेहरागरहित होकर, तीर का अर्थी ( संसार - समुद्र को पार करने का इच्छुक या संसार-समुद्र के तट पर पहुँचने का अभिलाषी), उपधानवान् (श्रुताराधना हेतु तप करने वाला) तथा दुःख का क्षयकर्त्ता बाह्याभ्यन्तर- तपस्वी होता है ।
उसके न तो उस प्रकार का ( दीर्घकालिक ) घोर तप होता है और न ही उस प्रकार की तीव्र वेदना होती है।
इस प्रकार का पुरुष दीर्घकालिक मुनिपर्याय द्वारा (दीर्घकाल तक साधुधर्म का पालन करता हुआ) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है और परिनिर्वाण को प्राप्त होता है तथा समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। जैसे कि चातुरन्त चक्रवर्ती भरत राजा हुआ, यह प्रथम अन्तः क्रिया है ।
जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करने और सर्वकर्मों का क्षय करने वाली योग-निरोधिका चार प्रकार की अन्तःक्रियाओं में से पहली अन्तःक्रिया अल्पकर्म के साथ आए और दीर्घकाल तक साधुपर्याय पालने वाले अन्तकृत् साधक की कही गई है। उदाहरण प्रस्तुत किया गया है - भरत चक्रवर्ती का | '
१. (क) चत्तारि अंतकिरियाओ पण्णत्ताओ. तं जहा - तत्थ खलु पढमा अंतकिरियाअप्पकम्म-पच्चायाते यावि भवति । से णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, संजमबहुले, संवरबहुले समाहिवहुले लूहे तीरट्टी उवहाणवं दुक्खक्खवे तवस्सी । तम्स णं णो तहष्पगारे तवे भवति णो तहप्पगारा वेयणा भवति । तहप्पगारे पुरिसजाते दीहेणं परियाएणं सिज्झति वुज्झति मुच्चति परिणिव्वाति सव्वदुक्खाणमंतं करेइ; जहा से भरहे राया चाउरंत चक्कवट्टी । पढमा अंतकिरिया ।
-स्थानांग, स्था. ४, उ. १, सू. १ / १
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