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ॐ ४३६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ *
हैं। कई मनुष्य जिनके कुछ कर्म शेष रह जाते हैं, वे सौधर्म आदि वैमानिक देवों में उत्पन्न होकर देव हो जाते हैं।
मनुष्यगति में ही मोक्ष-प्राप्ति होती है, वह भी किन्हीं विरले मनुष्यों को ही। मनुष्यगति या योनि से भिन्न गति या योनि वाले प्राणियों को मनुष्यों जैसी कृतकृत्यता या मुक्ति प्राप्त नहीं होती। अर्थात् मनुष्य ही सर्वकर्मों का क्षय करके मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जो मनुष्य नहीं है, वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता। क्योंकि मनुष्य के अतिरिक्त जो तीन गतियाँ हैं, उनमें सम्यक्चारित्र का परिणाम नहीं है, इसलिए मनुष्य के समान दूसरे जीवों को मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती।' .. देव सर्वदुःखों का अन्त नहीं कर सकते : क्यों और कैसे ? ..
किन्हीं मतवादियों का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है कि देव ही उत्तरोत्तर उच्च स्थानों को प्राप्त करते हुए समस्त दुःखों का अन्त (अन्तःक्रिया) कर सकते हैं, मनुष्य नहीं। यह कथन इसलिए युक्ति, प्रमाण एवं सिद्धान्त से सम्मत नहीं है कि देव आदि भवों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान के सिवाय सम्यकचारित्ररूप धर्माराधन का अभाव है। अतः वे देव आदि भवों में मोक्षगति प्राप्त नहीं कर सकते, ने ही वे सर्वदुःखों का अन्त कर सकते हैं। इसके विपरीत आहेत् मत में तीर्थंकर गणधर आदि का कथन है कि मनुष्य ही समस्त दुःखों का अन्त (अन्तःक्रिया) कर सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है, दूसरे प्राणी नहीं। अतः मानव ही परिपूर्ण सामग्री पाकर मोक्ष-प्राप्तिरूप अन्तःक्रिया कर सकता है, देव नहीं। मनुष्य-भव में धर्माराधना की पूर्ण सामग्री सम्भव ___ साथ ही गणधर आदि का कहना है कि मनुष्य-भव में ही धर्माराधना की परिपूर्ण सामग्री की प्राप्ति संभव है। इसलिए मनुष्य-भव के बिना मनुष्य-शरीर, उत्तम क्षेत्र, सद्धर्भ-श्रवण, श्रद्धा और चारित्र में पराक्रम आदि सब समुच्छय = अभ्युदय प्राप्त होना दुर्लभ है; फिर मोक्ष पाने की बात तो बहुत दूर है अथवा मनुष्य-शरीररूप अभ्युदय का प्राप्त करना भी अतीव दुर्लभ है। जो व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता है, जिसके पुण्य प्रबल नहीं हैं, उसे मानव-शरीर का प्राप्त होना उसी प्रकार अतिदुर्लभ है, जिस प्रकार महासागर में गिरे हुए रत्न का पुनः पाना अतिदुर्लभ है।
१. (क) निट्ठियट्ठा व देवा वा, उत्तरीए इयं सूर्य।
सूयं च मयेयमेगेसिं, अमणुस्सेसु णो तहा॥ -सूत्रकृतांग, अ. १५, श्लो. १६ (ख) देखें-इस गाथा का अन्वयार्थ, भावार्थ एवं विवेचन, पृ. ९७२-९७३ २. (क) अंतं करंति दुक्खाणं, इहमेगेसिं आहियं। आघायं पुण एगेसिं, दुल्लभेऽयं समुस्सए॥ -सूत्रकृतांगसूत्र १/१५/१७
-सूत्रकृतागसूत्र । (ख) देखें-इस गाथा का विवेचन, अमरसुखबोधिनी व्याख्या में, पृ. ९७३-९७४
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