________________
8 मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ३७७ 8
(२८).जो सैनिक शस्त्रविद्या का प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) लेता है, सीखने के बाद प्रतिदिन उसका अभ्यास (कवायद) करता है, वह युद्ध के समय रणभूमि में अपना जौहर दिखाकर शत्रु को पराजित कर सकता है, तब फिर जो साधक मानव-जीवन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम और समभाव का प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) प्राप्त करके उनका नित्य अभ्यास (परेड = कवायद) करता है; बहिर्मुखी बनी हुई इन्द्रियों को अन्तर्मुखी बनाकर आत्म-सेवा में लगाता है अथवा मन एवं इन्द्रियों को विषयों और कषायों की ओर से मोड़कर आत्म-स्वभाव में रमण करने का अभ्यास कराता है, वह क्यों नहीं समाधिमरण को प्राप्त कर सकता और मोहादि कर्मों को क्यों नहीं पराजित कर सकता?
(२९) ‘अतिपरिचयादवज्ञा' इस लोकोक्ति के अनुसार जिसका विशेष परिचय (सम्पर्क) होता है, उसकी कीमत कम हो जाती है। इस दृष्टि से औदारिक शरीर के साथ जीव का विशेष परिचय (सम्पर्क) जन्म-जन्म में रहा है, अतः अब इस मानव-भव में अतिपरिचित इस शरीर की कीमत नगण्य समझकर शरीर की अपेक्षा आत्मा अधिक मूल्यवान् है; ऐसा समझो तथा शरीर के प्रति जो ममता-
मूर्छा है, उसका व्युत्सर्ग (त्याग) करो और आत्मा के विकास, शुद्धि और कल्याण की ओर विशेष ध्यान इस समाधिमरण के दौरान दो, तभी तुम्हारी आत्मा ऊर्ध्वगामी होगी। .
(३०) पुराने (जीर्ण) वस्त्र बदलकर नये वस्त्र पहनने में व्यक्ति को आनन्द आता है; वैसे ही पुराने जीर्णशीर्ण अशुचिमय शरीर का ममत्व छोड़कर समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करने से दिव्य शरीररूपी वस्त्र मिलने वाले को कितना आनन्द होगा? - मनुष्य-भव तथा अच्छे संयोग प्राप्त होने पर भी लापरवाही क्यों ?
- इस प्रकार आत्मा की स्थिति और कर्म के कायदे को जानकर विचार करो कि कर्मानुसार एकेन्द्रिय जीवों में से किसी जीव का शरीर मिले तो वहाँ खाने को नहीं मिलता, तब सूखने का अवसर आ जाता है। उन एकेन्द्रिय जीवों में असंख्यात काल तक कर्म के कायदे के अनुसार जकड़ा रहा। फिर कुछ शुभ कर्मोदयवश दो, तीन या चार इन्द्रियाँ मिलीं, चेतना का कुछ विकास जरूर हुआ, किन्तु तब खाने-पीने की तलाश में तथा अपनी सुरक्षा के लिए दर (बिल आदि) बनाने में ही जिंदगियाँ पूरी हो गईं। नरकों में पाँचों इन्द्रियाँ तो मिलीं, किन्तु लम्बा-लम्बा आयुष्य नाना दुःखों में ही व्यतीत हुआ। देवगति में सुख-सामग्री होते हुए भी परिग्रह में लुब्ध रहा। इन्द्र के वज्र प्रहार सहे, ईर्ष्या-प्रतिस्पर्धा आदि से मानसिक संक्लेश रहा। तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों में जन्म होने पर भी रहने के स्थान, बच्चों की, सुरक्षा की एवं खुराक (खाने-पीने) की चिन्ता ही चिन्ता में जिंदगियाँ गईं।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org