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ॐ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण
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देह में स्थित आत्मा सुख और दुःख को सदैव जानता है और परलोक भी स्वयं (आत्मा) ही गमन करता है, तब फिर परमार्थ से (वास्तव में) देखा जाए तो मृत्यु का भय किसको होता है ?॥९॥
तात्पर्य यह है कि आत्मा को देह से भिन्न जानने-मानने वाला यह समझता है कि जो उत्पन्न होता है, वह मरता है। जड़ देहपिण्ड पैदा हुआ है, इसलिए वह नष्ट भी होता है। मैं (आत्मा) तो देहादि से भिन्न शुद्ध चैतन्यस्वरूप अविनाशी आत्मा हूँ। मैं उत्पन्न नहीं हुआ तो मेरा नाश भी नहीं होता। अतः इस देह को छोड़कर अन्य गति में गमन करने में मेरे स्वरूप का नाश तो है ही नहीं, तब फिर मैं मृत्यु का भय क्यों रखू? जिन जीवों का चित्त संसार में आसक्त है, उन्हें ही मृत्यु डरा सकती है। जो अपने चिदानन्द-स्वरूप के ज्ञान से युक्त हैं, वे तो संसार से विरक्त होने से मृत्यु उनके लिये आनन्ददायक अर्थात् महोत्सवरूप होती है॥१०॥
अपने द्वारा किये हुए सत्कर्मों का फल भोगने के लिए जब यह आत्मा परलोकगमन करता है, तब पंचभूत के इस शरीरादि के प्रपंच से इसे कौन रोक सकता है ?॥११॥ ___ साधकों को मृत्यु के समय जो रोगादि दुःख उत्पन्न होते हैं, वे सब शरीर पर होने वाले मोह का नाश करने के लिए तथा शान्ति से पूर्ण मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए होते हैं ॥१२॥ - जो मृत्यु अज्ञानी को ताप (संताप) रूप होती है, वही मृत्यु ज्ञानी के लिए अमृतरूप, अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली सुखरूप होती है। जैसे कच्चा घड़ा अग्नि का. ताप सहकर, पककर जल धारण करने में समर्थ होता है, वैसे मृत्युरूपी अग्निताप को जो समभाव से सह लेता है, वह अमृतरूप मोक्ष को प्राप्त करने में समर्थ होता है॥१३॥ .... - दीर्घकाल तक पंच-महाव्रतों का पालन आदि अनेक शुभ क्रियाओं की विडम्बना से जो फल संत पाते हैं, वही फल मृत्यु के समय समाधि (मानसिकवाचिक-कायिक शान्ति) रखने से सामान्य साधक सुखपूर्वक सहज ही प्राप्त कर लेता है॥१४॥ ---- जिस जीव को मृत्यु के समय आर्त (ध्यान के) परिणाम नहीं होते और चित्त शान्त होता है, वह जीव तिर्यंचगति या नरकगति में देह धारण नहीं करता। इसके विपरीत जो जीव धर्मध्यानपूर्वक अनशनव्रत सहित (संथारे सहित) मृत्यु प्राप्त करता है, वह जीव देवलोक में इन्द्र या महर्द्धिक देव होता है।॥१५॥
१. (क) मृत्युमहोत्सव, श्लो. १-१८ का भावानुवाद
(ख) समाधिमरण' (गुजराती) (भोगीलाल गि. शेठ) से भाव ग्रहण, पृ. २३२-२३८
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