Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 415
________________ ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक * ३९५ * संयम-साधना में अनेक बाधाएँ उपस्थित होने लगीं, तब उन वीर श्रमणों ने संलेखना-संथारायुक्त समाधिमरण स्वीकार करके एक ज्वलन्त आदर्श उपस्थित किया। इसी प्रकार उपासकदशांगसूत्र वर्णित आनन्द, कामदेव आदि श्रमणोपासकों ने भी अपने जीवन के संध्याकाल में संलेखना-संथारायुक्त समाधिमरण स्वीकार करके गृहस्थ-जीवन का आदर्श उपस्थित किया। स्वेच्छा से होने वाले मरण के दो प्रकार : आत्महत्या से और संलेखना-संथारे से यद्यपि समाधिमरण भी स्वेच्छा से मरण है और आत्महत्या आदि से की जाने वाली मृत्यु भी स्वेच्छामरण है। परन्तु कई लोग इस प्रकार की संलेखनापूर्वक समाधिमरण से होने वाली मरणकला को स्वाकीर न करके दूसरे प्रकार के स्वेच्छामरण को स्वीकार करके जीवन के आदर्श से च्युत एवं पतित हो जाते हैं। आत्महत्या से होने वाले मरण : कारण और दुःखद फल संसार के दुःखों के अतित्रास से, देहव्याधि की अत्यन्त पीड़ा से, किसी स्वजनादि की मृत्यु या धन-सम्पत्ति के नष्ट होने के समाचार से राजभय या अपकीर्तिभय के आवेशयुक्त भाव से, मानसिक निर्बलता और असहिष्णुता के कारण से, कौटुम्बिक या संघीय जीवन में असत्य प्रहार से, मनोज्ञ इच्छा पूर्ण न होने से, उत्पन्न हुए आघात से अथवा इसी प्रकार का कोई सदमा पहुँचने से जीव आत्महत्या करने को उद्यत हो जाता है। उसमें भी किसी प्रियजन के वियोग से, धनहानि से, स्वयं की मृत्यु का भविष्य जानकर भयोत्पादक समाचार से ऐसी आत्महत्या के प्रसंग प्रायः तत्काल बनते हैं। जबकि किसी घोर पीड़ा आदि के निमित्त से व्यक्ति आत्महत्या करने की पहले से तैयारी करता है और आत्महत्या के भाव को बार-बार घोंटकर आत्म-वीर्य (पराक्रम) प्रकट करता रहता है। फिर वह आत्महत्या करने का निश्चय करता है। एक-दो बार निष्फल प्रयत्न भी करता है और अन्त में, कषायभाव के अतिरेक से चित्त की उन्मत्त दशा. में. गले में फाँसी लगाकर, जहर पीकर, अग्नि-स्नान कर, जल में डूबकर, ट्रेन के नीचे कटकर, ऊपरी मंजिल से या पहाड़ से कूदकर तथा इन और ऐसे ही किसी प्रकार से जीवन का अन्त लाता है। परन्तु इस प्रकार के आत्म-हनन से या करने में तीव, कषायभाव होने से, जीवन के प्रति निराशा, कुण्ठा, घृणा एवं द्वेष, दुर्भाव होने से समाधिमरण के बजाय असमाधिमरण ही होता है, जिसका कटुफल तिर्यंच या नरकगति में भोगना पड़ता है तथा कषायभाव की १. 'जैन आचार : स्वरूप और सिद्धान्त' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ७३०, ७१८-७१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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