________________
@ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक है ४११ ॐ
जाता है, वलात् नहीं। अतः संथारा मरण को श्रेष्ठ रूप से निष्पन्न करने का प्रकार है।
ये सव प्राणोत्सर्ग प्रयोग समाधिमरण नहीं हैं जैनधर्म में जैसे संलेखना में काय और कषाय दोनों तपश्चर्या आदि द्वारा कृश करके समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग का विधान है; वैसे ही अन्य धर्मों के ग्रन्थों में भी जलसमाधि (जल में डूबकर मरने), झंपापात (पर्वत से गिरकर मरने), भैरवजप, कमलपूजा या विषपान करके अथवा मिट्टी में दबकर जीवित समाधि लेने का या अपने इष्ट देवी-देव के सामने अपना सिर काटकर समर्पण करके, आत्म-बलि के रूप में या ऐसे अनेकों प्रकार से प्राणोत्सर्ग करने का विधान है। संलेखना-संथारा में दीर्घकालिक तप द्वारा धीरे-धीरे शरीर को समाधिपूर्वक छोड़ने की प्रेरणा है; जबकि वैदिकादि धर्मोक्त जलसमाघि आदि उपायों द्वारा प्राणोत्सर्ग करने में झटपट शरीर छूट जाता है, मरण शीघ्र हो जाता है। कोई अधिक देर भी नहीं लगती; ऐसी स्थिति में जैनधर्म ने इन पूर्वोक्त शीघ्र-मरणोपायों का विधान या समर्थन क्यों नहीं किया ?
इसका समाधान यह है कि जैनधर्म में स्वेच्छा से जिस प्रकार के प्राणोत्सर्ग का विधान है, वह है समाधिपूर्वक मरण का। वह भी विशेष परिस्थिति में, जबकि शरीर तप, संयम, नियम-धर्म के पालन में बिलकुल अक्षम-असमर्थ हो जाये, दूसरों के लिए भारभूत हो जाये; अथवा प्राकृतिक या पर-प्राणिकृत ऐसी विपत्तियाँ आ जाएँ कि वह न तो अपना ही कल्याण कर सके, न जगत् का ऐसी स्थिति में संलेखना-संथारारूप समाधिमरण का मार्ग स्वीकार करना ही अभीष्ट और उचित है। पहाड़ से गिरने, जल में डूबने, विषपान करने अथवा देवी-देवों के आगे स्वयं की आत्म-बलि कर देने, भैरव जाप आदि उपायों में समाधिभाव प्रायः नहीं रहता। आर्तध्यान की ही मात्रा अधिक दिखाई देती है। विविध उपायों से मरने की ये प्रथाएँ भूतकाल में कुछ तो धर्म-सम्प्रदाय-मत-पंथ के नाम पर चलती थीं, कुछ
लौकिक या सांसारिक कारणों से या देवी-देवों को प्रसन्न करने के निमित्त से चलती · · थीं; इनकी नींव प्रायः अन्ध-श्रद्धा पर टिकी हुई थी। इनसे जीवन में कोई अभीष्ट धर्माराधना, कषायादि विकारों पर विजय की साधना या चारित्र-रक्षा की कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती। किसी देवी-देव को खुश करने के लिहाज से मर जाना
१. (क) “जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण से भाव ग्रहण. पृ. २८
(ख) 'श्रावकधर्म-दर्शन से भाव ग्रहण. पृ. ६४३ (ग) तत्त्वार्थसूत्र, अ. ७. सू. १७ (घ) मरण-पडियारभूया एसा. एवं च ण मरणणिमित्ता। जह गंडच्छेय-किरिया. णो आय-विराहणारूबा॥
-दर्शन और चिन्तन, पृ. ५३६ से उद्धृत
.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org