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ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ॐ ४१३ *
को अमरता में बदलना ही उसका लक्ष्य होता है, ताकि मरण की परम्परा ही समाप्त हो जाये। अतएव संथारा बार-बार जन्म-मरण की प्रक्रिया को रोकने की कला है। इसीलिए 'स्थानांगसूत्र' के तृतीय स्थान में साधु और श्रावकों के तीन मनोरथों का (उत्तम मन-वचन-काया से उक्त भावनाओं) महानिर्जरा-महापर्यवसान रूप फल बताया गया है। उनमें से दोनों के लिए अन्तिम मनोरथ इस प्रकार है"कव मैं अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना (संथारा) की आराधना से मुक्त होकर भक्त-पान का परित्याग कर, प्रायोपगमन (पादपोपगमन) संथारा स्वीकार कर मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ विचरूँगा।" श्रमण निर्ग्रन्थ या श्रमणोपासक के द्वारा किये गये संलेखना-संथारे के पीछे कितनी सुन्दर भावना है और उक्त भावना (मनोरथ) का सुफल है-महानिर्जरा और महापर्यवसान। जब कर्मनिर्जरा विपुल-प्रमाण में असंख्यात-गुणित क्रम से होती है, तब वह महानिर्जरा कहलाती है। महापर्यवसान के दो अर्थ होते हैं-समाधिमरण और अपुनर्मरण। जिस साधक के कर्मों की महानिर्जरा होती है, वह या तो समाधिमरण को प्राप्त होता है या फिर कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर अपुनर्मरण को प्राप्त होता है। या तो वह समाधिमरण के फलस्वरूप उत्तम जाति के देवों में उत्पन्न होकर फिर क्रमशः मोक्ष प्राप्त करता है या फिर वह सर्वकर्ममुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से सदा-सदा के लिए छूटकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। __ इस शास्त्रोक्त पाठ से स्पष्ट ध्वनित होता है कि संलेखना-संथारा आत्महत्या नहीं है, क्योंकि संथारा करने वाले के मन-मस्तिष्क में कषायों का आवेग नहीं होता, अपित शान्ति और समाधि होती है। वह इस नश्वर शरीर को, जोकि अब संयम-नियम के पालन में अक्षम हो गया है, प्रसन्नतापूर्वक त्यागता है। उसका उद्देश्य या लक्ष्य मृत्यु को आमन्त्रित करना नहीं, अपितु मृत्यु के सहज आने पर आत्म-समाधिपूर्वक स्वीकार करना है। मृत्यु उसे न तो प्रिय होती है और न ही अप्रिय। मृत्यु को वह एक वस्त्र-परिवर्तन की घटना की तरह मानता है। उसको या उसके सम्बन्धित परिवार आदि को संलेखना-संथारा द्वारा मृत्यु होने से कोई दुःख नहीं होता, अपितु अनासक्ति की अनुभूति से अनिर्वचनीय आनन्द-ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है, मृत्यु को महोत्सव माना जाता है।'
१. (क) तिहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति, तं.-उ.
कयाणं अहं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसिते भत्त-पाण-पडिआइक्खित्ते पाओवगते कालं अणवकंखमाणे विहरिस्सामि? एवं समणसा सवयसा सकायसा पागडेमाणे समणे णिग्गंथे। समणोवासए महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति।
-स्थानांग. स्था. ३, उ. ४, सू. ४९६-४९७ (ख) स्थानांगसूत्र, विवेचन (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर), स्था. ३, उ. ४, पृ. १८८ (ग) “जीवन की अन्तिम मुस्कान' से भाव ग्रहण, पृ. ४८
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