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* ४२४ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ *
करता है और न दूसरे से करवाता है। विशिष्ट संहनन और संस्थान वाले ही इस मरण का वरण करते हैं।
भक्त-प्रत्याख्यान और इंगिणीमरण में यह अन्तर है कि भक्त-प्रत्याख्यान में साधक स्वयं अपनी शुश्रूषा करता है, दूसरों से भी शुश्रूषा लेता है। वह त्रिविध आहार का भी त्याग करता है और चतुर्विध आहार का भी तथा अपनी इच्छा से जहाँ भी जाना चाहे, जा सकता है। किन्तु इंगिणीमरण में चतुर्विध आहार का त्याग होता है। वह नियत प्रदेश में ही इधर-उधर जा सकता है, उसके बाहर नहीं जा सकता। वह दूसरों से शुश्रूषा भी नहीं करवाता। भक्त-प्रत्याख्यान के दो भेद हैं-सविचार और अविचार। अविचार भक्त-प्रत्याख्यान मृत्यु की आकस्मिक । संभावना होने पर किया जाता है। अविचार भक्त-प्रत्याख्यान के तीन प्रकार हैंनिरुद्ध, निरुद्धतर और परम निरुद्ध। जिस श्रमण के शरीर में दुःसाध्य व्याधिं हो, आतंक से पीड़ित हो, जिसके पैरों की शक्ति क्षीण हो चुकी हो, इस कारण दूसरे गण में जाने में जो असमर्थ हो, उसका भक्त-प्रत्याख्यान निरुद्ध अविचार कहलाता है। ऐसा साधक शरीर में शक्ति हो, तब तक अपना कार्य स्वयं करता है। जब वह असमर्थ हो जाता है, तब दूसरा श्रमण उसकी शुश्रूषा करे। पैरों की शक्ति निरुद्ध हो जाने के कारण ही उस भक्त-प्रत्याख्यान को निरुद्ध अविचार कहा गया है। जहरीले सर्प के काट खाने पर, अग्नि आदि का प्रकोप होने पर तथा इसी प्रकार के मृत्यु के अन्य तात्कालिक कारण उपस्थित होने पर उसी क्षण जो भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, वह निरुद्धतर है। सर्पदंश या अन्य किसी ब्रेन हेमरेज आदि के अन्य कारण से वाणी अवरुद्ध हो जाती है, किन्तु उसने पहले से अन्य साधकों को भक्त-प्रत्याख्यान संथारा कराने का संकेत कर दिया है, ऐसी स्थिति में, जो भक्त-प्रत्याख्यान किया जाता है, उसे परम निरुद्ध कहते हैं। सागारी संथारा : स्वरूप और प्रकार
प्रकारान्तर से पण्डितमरण के सागारी संथारा और सामान्य संथारा ये दो भेद किये जा सकते हैं। विशेष उपसर्ग, आपत्ति या असह्य पीड़ा या मारणान्तिक कष्ट उपस्थित होने पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, उसे सागारी संथारा कहते हैं। यह संथारा मृत्यु-पर्यन्त के लिए नहीं होता। जिस परिस्थिति-विशेष के कारण वह संथारा किया गया है, वह परिस्थिति यदि शान्त और समाप्त हो जाती है, आपत्ति
और उपसर्ग दूर हो जाते हैं तो उस संथारे की मर्यादा पूर्ण हो जाती है, वह पार लिया जाता है।
१. (क) उत्तराध्ययन पाइय टीका, अ. ५
(ख) मूलाचार, आश्वास २, गा. ६५; आ. ७, गा. २०११, २०१३-२०२२
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