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ॐ ४२६ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
लाभ यह भी है कि सोते समय यदि शुद्ध भावना रहती है तो स्वप्न भी अच्छे विचारों के आते हैं। संथारा-पोरसी में रात्रि में शुभ संकल्प लेकर व्यक्ति सोता है कि प्रातःकाल जाग्रत होने तक तन, धन, परिवार आदि की ममता से मुक्त रहूँ एवं . इस शुभ संकल्प के साथ सोऊँ
“आहार शरीर उपधि पचवू पाप अठार।
मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार॥" यावज्जीवन अनागारी संथारा की विधि ___ अनागारी यावज्जीवन संलेखना-संथारा तभी ग्रहण किया जाता है, जब दुःसाध्य रोग, वृद्धावस्था, दुष्काल आदि के कारण शरीर अत्यन्त क्षीण हो जाये, मृत्यु सम्मुख खड़ी दिखाई दे। इसीलिए इसे मारणान्तिक संलेखना (संथारा) कहा जाता है। प्राचीनकाल में जो भी साधक इस प्रकार का संथारा करता था, वह पहले काय और कषाय दोनों की संलेखना (कृशीकरण) करता था। उसके पश्चात् यावज्जीवन मारणान्तिक अनागारी संथारा ग्रहण करता था। हाँ, यदि कोई आकस्मिक कारण आ जाता तो संलेखना के बिना ही संथारा ग्रहण कर समाधिपूर्वक मरण का वरण किया जाता है। . इस दृष्टि से यावज्जीवन अनागारी संथारा ग्रहण करने की विधि इस प्रकार है
‘ऐसा संथारा ग्रहण करने वाला साधक सर्वप्रथम अपने गुरुदेव के समक्ष सम्यक्त्व और व्रतों में लगे हुए दोषों का अन्तनिरीक्षण करके उनकी आलोचना निन्दना (पश्चात्ताप) और गर्हणा करे। यदि साधु जी उपस्थित न हों तो वृद्ध बहुश्रुत गम्भीर श्रावक-श्राविका या फिर इनमें से कोई भी योग न मिले तो पंच परमेष्ठी और अपनी आत्मा की साक्षी से आलोचनादि करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर आत्म-शुद्धि करे। तत्पश्चात् पौषधशाला, उपाश्रय, स्थानक या गिरि-कन्दरा आदि किसी शान्त-प्रशान्त, निरवद्य स्थान में जाकर भूमि का प्रतिलेखन-प्रमार्जन करे। उच्चार-प्रस्रवण (स्थण्डिल) भूमि का भी प्रतिलेखन करे। फिर गमनागमन का प्रतिक्रमण करे। तत्पश्चात् उस निरव शुद्ध स्थान में अपना आसन जमाए, दर्भ, घास या पराल आदि में से किसी एक का संथारा (बिछौना) बिछाये। उस पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठे या बैठने की शक्ति न हो तो लेटे। तत्पश्चात् दोनों करतल (हाथ) संपरिगृहीत कर (जोड़कर) शिरसावर्त कर (मस्तक से लगाकर मस्तक पर अंजलि करके) दो बार 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं' से जाव संपत्ताणं (प्रथम बार और दूसरी बार) जाव संपाविउकामाणं कहे। यों बोलकर
१. 'जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण' से भाव ग्रहण, पृ. ९१
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