Book Title: Karm Vignan Part 08
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 434
________________ ॐ ४१४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * संलेखना-संथारा : जीवन की अन्तिम आवश्यक अध्यात्म-साधना वस्तुतः संलेखना-संथारा मृत्यु पर विजय प्राप्त करने की कला सिखाती है। वह जीवन-शुद्धि के साथ-साथ मरण-शुद्धि की भी प्रक्रिया है। जिस साधक ने मदन (काम) के मद को गलित कर दिया है, जो बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रह-पंक से मुक्त हो चुका है या मुक्त होने का अभ्यास करता है तथा सदा-सर्वदा आत्म-चिन्तन में लीन रहता है, वही व्यक्ति संलेखना-संथारापूर्वक समाधिमरण के मार्ग को अपनाता है। संलेखना में सामान्य मनोबल वाला व्यक्ति विशिष्ट मनोबल प्राप्त कर लेता है। संलेखनापूर्वक यावज्जीव अनशन मन की उच्चतम अवस्था का सूचक है। संलेखना-संथारा-साधक जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधान होकर चलता है। वह यों ही अकारण मृत्यु का आह्वान नहीं करता, परन्तु मृत्यु उसके जीवनद्वार पर आ पहुँचती है तो वह मित्र की तरह उसे भेंटने के लिए उत्सुक होकर कहता है-“मित्र ! आओ, मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। मुझे अब शरीर पर मोह नहीं है। मैंने अपने कर्तव्य को पूर्ण कर लिया है, इसलिए मुझे अब तुम्हारा (मृत्यु का) डर नहीं है, क्योंकि मैंने सुगति का मार्ग ग्रहण कर लिया है।'' ऐसे साधक की मृत्यु समाधि का कारण बनती है, असमाधि का नहीं। एक संत कवि ने कहा है-“जैसे कोई नववधू डोले पर बैठकर ससुराल जा रही हो, तब उसके मन में अपार आह्लाद होता है, वैसे ही साधक को भी दिव्यलोक जाते समय या मुक्तिपुरी जाते समय अपार प्रसन्नता होती है।"२ यही कारण है कि संलेखना-संथारा को जीवन-मन्दिर का सुरम्य कलश तथा परम आध्यात्मिक आवश्यक साधना माना गया है। इसलिए संलेखना-संथारा व्रत को आत्महत्या कहना निराधार है। संलेखना-संथारा बहुत ही भावना और विचार के पश्चात् होता है, आत्महत्या में ऐसा नहीं होता ___ पहले कहा जा चुका है कि संलेखना-संथारे द्वारा जो समाधिपूर्वक मरण होता है, उसमें और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है। आत्महत्या करने वाला व्यक्ति संघर्षों से ऊबकर पलायन करना चाहता है। आत्महत्या में वीरता नहीं, कायरता है। तीव्र कषाय और वासना की उत्तेजना है। समाधिमरण का साधक संघर्षों से भयभीत होकर पलायन नहीं करता। उसके मन में कषायों, वासनाओं और इच्छाओं की तीव्रता नहीं होती। संलेखना-संथारा करने वाले में वीरता होती है। आत्महत्या में व्यक्ति दीर्घदृष्टि से सोचे-विचारे विना आवेश में आकर झटपट प्राण-त्याग करता है, जबकि संलेखना-संथारे का आराधक अकस्मात् इस १. लहिओ सुग्गइ-मग्गो ना हं मच्चुस्स वीहेमि। __ -महापच्चक्खाण पइण्णयं २. सजनि ! डोले पर हो जा सवार, लेने आ पहुँचे हैं कहार। ३. “जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६९८-६९९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534