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@ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ॐ ४०५ *
अकरणीय संकल्प के अनुरूप उसने विशाल वावड़ी वनवाई तथा उसके कारण मिलने वाली प्रतिष्ठा में आसक्त व मूर्छित होकर जीवन की वाजी हार गयी। इतने दान और परोपकार के साथ प्रशंसा की भूलभूलैया में पड़कर तथा शरीर और शरीर-सम्बद्ध पदार्थों के प्रति मोह-ममत्व में फँसकर वह अपने अन्तिम समय में जीवन की वाजी सुधार न सका; संलेखना-संथारा करके भी समाधिपूर्वक मृत्यु को अंगीकार न कर सका। इसी कारण तो वह जीवन की वाजी हार गया।' ।
जिन्दगी में की हुई अनाराधना, मृत्युकाल में
. आराधना में परिणत हो सकती है इसके विपरीत “पूर्व जीवनकाल में न आराधी हुई रत्नत्रय की आराधना को यदि कोई अन्तिम समय में भी अपना ले तो वह जीव भी उसी प्रकार रत्नत्रय को अकस्मात् प्राप्त कर लेता है, जिस प्रकार अन्धे को खम्भे से टकराने पर भाग्यवश नेत्र खुल जाने से वहाँ से रत्न-प्राप्ति हो जाती है।" इसी प्रकार कई व्यक्तियों के जीवन की बाजी अपने जीवितकाल में तो बिगड़ती जाती है। कहीं किसी अप्रिय घटना को लेकर आत्महत्या करने को उद्यत हो जाता है या किसी इष्टजन अथवा प्रिय पदार्थ के वियोग के गम में गले में फाँसी लगाकर मरने को तैयार हो जाता है। किसी व्यापार या कल-कारखाने में घाटा लग जाने के कारण किसी जलाशय या कुएँ में गिरकर या ट्रेन के नीचे कटकर जिन्दगी को समाप्त करने की सोचता है। परन्तु ज्यों ही जीवन की सन्ध्या आ घेरती है, मृत्यु की छाया आँखों के सामने आ खड़ी होती है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, सारा शरीर रोग या बुढ़ापे के कारण अशक्त या जर्जर हो जाता है; तब एकदम जागृति आ जाती है। धर्म के पूर्व संस्कारों के कारण उसे अपने जीवन की आलोचना, प्रतिक्रमण, आत्म-निन्दा (पश्चात्ताप), गर्हा, प्रायश्चित्त आदि करके क्षमापना के साथ आत्म-शुद्धिपूर्वक आमरण अनशन (संलेखना-संथारा) करने की सुन्दर स्फुरणा उत्पन्न होती है और वह जिन्दगी की
बिगड़ी हुई बाजी को मारणान्तिक संलेखना करके अन्तिम समय में सुधार लेता है। :- १. (क) सुचिरमवि णिरदिचारं विहरित्ता णाण-दसण-चरिते।
___मरणे विराधयित्ता अणंत संसारिओ दिट्ठो॥ -भगवती आराधना १९२४ (ख) अन्तक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते।।
तस्माद् यावद् विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम्॥ -समन्तभद्र, समीचीन धर्मशास्त्र ६-२ (ग) आराद्धोऽपि चिरं धर्मो, विराद्धो मरणे मुधा।
स त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम्॥ -सागार धर्मामृत १६ (घ) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६३७, ६१९
(ङ) देखें-ज्ञाताधर्मकथा में नन्दन मणिहार का वृत्तान्त २. (क) भगवती आराधना १९२३
(ख) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६१९ (ग) स त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम्। -सागार धर्मामृत १६
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