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* ४०४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
संलेखना-संथारा व्रतराज है, यह जीवन की अन्तिम वेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है।' जिंदगीभर की हुई आराधना मृत्यकाल में विराधना में परिणत हो सकती है
मृत्यु समग्र जीवन का निचोड़ है। साधना की जीवनभर की हुई साधना की परीक्षा मृत्यु के समय होती है। ‘भगवती आराधना' में कहा गया है"ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप धर्म (मोक्षमार्ग) की किसी साधक ने चिरकाल तक निरतिचार साधना की, किन्तु मरण के समय इस आत्म-धर्म की विराधना कर ली,. . तो ऐसा साधक अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करता देखा गया है।" इसी प्रकार आचार्य समन्तभद्र ने भी कहा है-“कोई साधक जीवनभर अन्तःक्रिया की आधारभूत बाह्याभ्यन्तर तपःसाधना करता रहे, किन्तु अन्तिम समय में यदि वह राग-द्वेष के दलदल में फँस जाये तो उसका जीवन निष्फल हो जाता है। इसलिए यथाशक्ति समाधिमरण के लिए प्रयत्न करना चाहिए।" किसी साधक ने जिंदगीभर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट आराधना की, सबसे अच्छा व्यवहार रखा, सरलता
और सादगी अपनाई, कषायों की भी मन्दता रही, किन्तु जीवन के सन्ध्याकाल में, मृत्युवेला में, इस लोक से विदा होते समय उसने बाजी बिगाड़ ली, कषायों की तीव्रता आ गई, तृष्णा बढ़ गई; शरीर के तथा शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव प्रिय, मनोज्ञ पर-पदार्थों के प्रति मोह, ममता-आसक्ति आ गई। मोहमूढ़ होकर विलाप करने लगा, तन-मन की पीड़ा से उद्विग्न होकर आर्तध्यान करने लगा। इस प्रकार मृत्यु के समय में शान्ति, धैर्य, समता और समाधि के स्थान पर अशान्ति, बेचैनी, अधीरता, चिन्ता, शोक, भय, मोह, दुःख या क्रोधादि अधिक होने से असमाधि के संक्लिष्ट परिणामों ने घेर लिया। फलतः अन्तिम समय में वह समाधिमरण-साधना का आराधक न रहकर विराधक बन गया। वह अपनी की-कराई साधना को मिट्टी में मिला देता है। ऐसा साधु या श्रावक अन्तिम समय में संलेखना-संथारे (भक्त-प्रत्याख्यानरूप यावज्जीव अनशन) को स्वीकार कर लेने पर भी समाधिमरण की साधना से भ्रष्ट हो जाता है। नन्दन मणियार श्रावकव्रत धारण करके व्रताराधना सम्यक् प्रकार से करता रहा। किन्तु बीच में ही मिथ्यात्व का प्रबल अन्धड़ उसके जीवन में आया और उसी दौरान उसने अट्ठम पौषध किया। उस पौषध में अकरणीय संकल्प करके सुन्दर जीवन को असुन्दर बना लिया। उस १. (क) भगवतीसूत्र (ख) जो जाये परिणमित्ता लेसाए संजुदो कुणइ कालं।
तल्लेसो उववज्जइ, तल्लेसे चेव सो सण्णे॥ -भगवती आराधना १९२२ (ग) यं यं वाऽपि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय ! सदा तद्भाव-भावितः॥ -भगवद्गीता, अ. ८, श्लो. ६
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