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ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक @ ४०३ ॐ
प्रकार के.संथारों में से कोई एक संथाग ग्रहण किया जाता है। 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में कहा गया है-कोई निष्प्रतीकार्य देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत उपसर्ग आ जाये या दुष्प्रतीकारक भयंकर दुर्भिक्ष का संकट उपस्थित हो, अत्यन्त वृद्धावस्था आ जाये (जिससे अपने व्रत, नियम या चारित्र का पालन दुष्कर हो) या मृत्युदायक रोग हो तो धर्म (रक्षार्थ) शरीर-त्याग का (मारणान्तिक) संलेखना कहते है। _ 'भगवती आराधना' में कहा है-अथवा कोई व्यक्ति लोभाविष्ट होकर अनुकूल शत्रु के रूप में चारित्र नष्ट करने को उद्यत हो जाये या हिंसक पशुओं से परिपूर्ण भयानक वन में दिशा या मार्ग भूल जाने पर, आँख, कान या जंघाबल अत्यन्त क्षीण हो जाने पर, इन और ऐसे ही अत्यन्त गाढ़ कारण उपस्थित होने पर गृहस्थ या साधु भक्त-प्रत्याख्यान (संथारे) के योग्य समझे जाते हैं अथवा अपने आयुष्यकालपरक द्वारा या उपसर्ग द्वारा निश्चित रूप से आयुष्यक्षय सम्मुख होने पर यानी जिस समय मृत्यु के आगमन की निश्चित संभावना हो, अथवा ऐसी कोई परिस्थिति उत्पन्न हो जाये कि मृत्यु को स्वीकार किये बिना धर्म (कर्तव्य) भ्रष्टता से बचने का और कोई उपाय न हो, अथवा जिन देहादि विकारों के होने पर शरीर निश्चित रूप से टिक नहीं सकता हो, अथवा उसके कारण उपस्थित हो जाने पर या आयुक्षय का निश्चय हो जाने पर ही साधक संलेखना की आराधना में लगता है।
जिस श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी का चरित्र निर्विघ्न पल रहा है, जिसे निर्यापक (संलेखना-संथारा कराने वाले) का योग नहीं है तथा दुर्भिक्ष, रोग आदि का कोई भय नहीं है, वह साधक भक्त-प्रत्याख्यान (संलेखना-संथारा) के अयोग्य है।'
. संलेखना-संथारा में अन्तिम समय की प्रधानता क्यों ? यहाँ एक शंका यह होती है कि संलेखना-संथारा में अन्तिम समय की प्रधानता क्यों रखी गई है? इसका समाधान यह है कि भगवतीसूत्र, भगवती आराधना, भगवद्गीता में मृत्यु से सम्बद्ध एक सिद्धान्त यह बताया गया है कि "जल्लेसे मरइ, तल्लेसे उववज्जइ।"-जीव जिस लेश्या से परिणत होकर मरण को प्राप्त होता है, वह उत्तर-भव में उसी लेश्या का धारक होकर देव-मनुष्यादि गतियों में उत्पन्न होता है। एक कहावत भी प्रसिद्ध है-“अन्तमति सो गति।" इसलिए १. (क) जरा-रोगेन्द्रियहानिभिरावश्यक परिक्षये।
-राजवार्तिक ७/२२ (ख) उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे। . धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः॥
-रत्नक. पा. १२२ (ग) अरण्णम्मि एयारिंस मि आगाढकारणे जोइ।
अरिहो भत्तपइण्णए होदि, विरदो अविरदो वा॥ -भगवती आराधना ७४
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