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ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक 8 ४०१ 8
पारंगत विद्वान् (प्रबुद्ध) साधक जब यह जानें कि अब हमें शरीर और कषाय दोनों प्रकार से कृशीकरण (संलेखन) करना है, तब वे क्रमशः (यथाक्रम) आरम्भादि (बाह्य) प्रवृत्तियों से स्वयं को निवृत्त करें। सर्वप्रथम कषायों को पतले (क्षीण) करें, फिर अल्पाहारी (उपवासादि तप करके) बनकर आहार-त्याग की
ओर बढ़े तथा उपसर्ग-परीषहों को सहन करें।" किन्तु ऐसा करते हुए वे संलेखना साधक न तो जीवन (जीने) की आकांक्षा करें और न ही शीघ्र मरने की आशा या अभिलाषा करें। जीवन और मरण दोनों में आसक्ति न रखें। अर्थात् जीवन से मोह भी न हो तो जीवन से घृणा (नफरत) भी न हो, साथ ही मृत्यु की आकांक्षा न हो तो मृत्यु से भय भी न हो। दोनों ही स्थितियों में सम रहें, मध्यस्थ रहें, निर्जरापेक्षी रहें। समाधि का अनुपालन करें। अन्तर और बाह्य दोनों प्रकार से शरीरादि पर-भावों तथा राग-द्वेषादि विभावों का व्युत्सर्ग करके शुद्ध अध्यात्म की गवेषणा करें, उसी में तन्मय हो।'
संलेखना : संथारा की पूर्व तैयारी है भी, नहीं भी 'आचारांगसूत्र' के आठवें अध्ययन से यह भी ध्वनित होता है कि संलेखना (यावज्जीव अनशन-संथारा), भक्त-प्रत्याख्यान आदि की तैयारी है भी और नहीं भी है। क्योंकि ‘आचारांग' के इसी अध्ययन के आठवें उद्देशक की तीसरी गाथा के द्वितीय चरण-'अहभिक्खू गिलाएज्जा आहारस्सेव अंतियं' के टीकाकार ने दो प्रकार के अर्थ. और अभिप्राय प्रगट किये हैं-(१) आहार न करने से यदि भिक्षु ग्लान (रुग्ण) हो जाये, मूर्छा चक्कर आदि आने लगे (उस दुःसह पीड़ा या वेदना को सहने में अक्षम होता जाये) तो आहार ग्रहण कर ले, (२) यदि आहार से ग्लानि (अरुचि) होने लगे तो क्रमशः आगे बढ़ता हुआ भक्त-प्रत्याख्यान (संथारे) की तरफ गति करे।" . - पूर्व तैयारी के रूप में संलेखना और मारणान्तिकी संलेखना में अन्तर ..इस गाथा के दूसरे अभिप्राय के अनुसार संलेखना यावज्जीवन अनशन-संथारे की पूर्व तैयारी भी है। समाधिमरण-साधक संलेखना द्वारा अपनी शारीरिक,
१.. दुविहं पि विदित्ताणं बुद्धा धम्मस्स पारगा।
आणुपुब्बीए संखाए, आरंभाओ तिउद्दति ॥२॥ कसाए पयणुए किच्चा, अप्पाहारी तितिक्खए। अहभिक्खू गिलाएज्जा आहारस्सेव अंतियं ॥३॥ जीवियं णाभिकंखेज्जा, मरणं णावि पत्थए। दुहओ वि ण सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा॥४॥ मज्झत्थो णिज्जरापेही, समाहिमणुपालए। अंतो बहिं विउसिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए॥५॥
-आचा.८/८
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