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ॐ ४०० कर्मविज्ञान : भाग ८ *
दिगम्बर-परम्परा के अनुसार-मुनि या श्रावक क्रमशः अनशनादि तप को बढ़ाते हुए अपने देह को कृश करके शरीर-संलेखना करते हैं। फिर क्रमशः आहार को कम करने के लिए प्रतिदिन गृहीत नियमानुसार कभी उपवास, कभी आचाम्ल, कभी वृत्ति-संक्षेप, कभी रस-परित्याग आदि तपश्चरण क्रमशः करते हुए शरीर कृश करते हैं। यदि आयु तथा देह की शक्ति अभी पर्याप्त हो तो मुनि बारह भिक्षु-प्रतिमाओं तथा श्रावक ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं को स्वीकार करके शरीर कृश करता है। उन प्रतिमाओं से क्षपक या श्रावक को कोई पीड़ा नहीं होती। शरीर-संलेखना के साथ ही राग-द्वेष-कषायादि रूप परिणामों की विशुद्धि भी अनिवार्य है; अन्यथा केवल शरीर को कृश करने से संलेखना का उद्देश्य पूरा नहीं होता।'
वास्तव में उभयविध संलेखना शरीर को कृश करके कष्ट-सहिष्णु तथा आत्मा को प्रशान्त रस में निमग्न बनाने की साधना है। मुमुक्षु साधक को संलेखना केवल आत्म-कल्याण और मोक्ष के उत्कृष्ट हेतु से करनी है। इसलिए शल्यरहित तथा कषायभावरहित होकर ही संलेखना करनी चाहिए। किसी सांसारिक स्वार्थ, लाभ, यशःकीर्ति, पूजा-सत्कार, स्वर्गादि सुख की वांछा या लौकिक-भौतिक कामना से प्रेरित होकर नहीं करनी चाहिए अथवा किसी प्रकार के निदान (नियाणा) सहित बन्धकारक उद्देश्य से अन्न-पानी का त्याग करके देह छोड़े तो उसमें लेशमात्र भी स्वात्म-कल्याण नहीं है। ऐसी लोभयुक्त क्रिया केवल भव-भ्रमण बढ़ाने वाली है तथा आगामी भवों में दुःख उत्पन्न करने वाली है। इस दृष्टि से जहाँ सच्ची संलेखना उत्तम-अमृतफल-प्रदायिनी (स्वर्ग-मोक्षादि-दायिनी) है, वहाँ असद्भावयुक्त एवं मिथ्या संलेखना विषरूप है। संलेखना-साधक संथारा-ग्रहण से पहले क्या करे ?
'आचारांगसूत्र' में भक्त-प्रत्याख्यान, इंगिनीमरण तथा पादपोपगमन इन तीन यावज्जीव-अनशन-संथारों का वर्णन है, किन्तु इनकी पूर्व भूमिका के या तैयारी के रूप में पहले संलेखना का विधान है। जैसा कि वहाँ कहा गया है-“धर्मतत्त्व में पिछले पृष्ठ का शेष(ङ) दुवालसं परिसं निरंतरं हायमाणं आयंबिलं करेइ।
कोडिसहियं भवइ जेण अंबिलस्स कोडीकोडीए मिलइ॥ -निशीथचूर्णि (च) आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत् पानम्।
स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् क्रमशः॥ -सागारधर्मामृत ८/५७, ६४-६७ खरधनं हायमानमपि कृत्वा, कृत्वोपवासमपिशक्त्या। पंच नमस्कारमनास्तनूं त्यजत् सर्वयत्नेन॥
-रत्नकरण्डक श्रावकाचार १२४-१२८; चारित्रसार ४८/२ १. भगवती आराधना, गा. २४६-२४९ २. 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. ३१-३२
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