________________
ॐ संलेखना - संथारा: मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ४०७
पश्चात्तापपूर्वक हृदय से भावपूर्वक क्षमायाचना की। अपने अनुयायियों से भी कहा कि मेरा शरीर छूट जाने के पश्चात् इसे बाँधकर इस पर कोड़ों से प्रहार करना, ताकि जनता को मेरे अपराधों और दम्भों का पता लग जाये । इस प्रकार मंखली-पुत्र अन्तिम समय में समाधिमरणपूर्वक आराधक वनकर इस लोक से विदा हुआ। तात्पर्य यह है कि गोशालक ने पहले निष्फल हुई अपनी जिंदगी अन्तिम समय में सफल वना ली, अपनी विगड़ी हुई वाजी सुधार ली ।
इसलिए संलेखना में अन्तिम समय ( मरणान्तकाल ) की प्रधानता रखी गई है। इस अन्तिम काल के संलेखना - संथारे से यह लाभ है कि जीवन के पूर्वार्द्ध में निष्फल एवं विराधक वना हुआ जीव यदि मृत्यु के समय समाधिपूर्वक धर्माराधना कर लेता है तो चिरकाल से उपार्जित पापों को भी नष्ट कर देता है। इसके विपरीत चिरकाल से आराधित धर्म भी यदि मृत्यु के समय छोड़ दिया जाये या उसकी विराधना की जाये तो मृत्यु के समय असमाधिपूर्वक जीवन का अन्त होने से वह निष्फल और विराधक बन जाता है, अनन्त संसार बढ़ा लेता है । '
शरीर-कषाय-संलेखना पहले से ही क्यों ?
संलेखना से सम्बन्धित एक प्रश्न यह भी है कि यदि मरणकाल में ही आगम की सारभूत रत्नत्रय की परिणति होती हो तो उससे भिन्न (पूर्व) काल में (संलेखना की पूर्व निर्दिष्ट कालावधि के अनुसार) कषाय-संलेखना के लिए सम्यक् चारित्राराधन और शरीर-संलेखना के लिए तपश्चरण की क्या आवश्कता है ?
"
'भगवती आराधना' में इसका समाधान इस प्रकार दिया गया है - जैसे युद्ध-विद्या के प्रशिक्षणार्थी को युद्धकाल से पूर्व ( काफी अर्से तक) शस्त्र - विद्या का अभ्यास, प्रशिक्षण कवायद इसलिए करने पड़ते हैं कि युद्ध के समय कुशलतापूर्वक अपना जौहर दिखा सके, मृत्यु का साहसपूर्वक वरण करके भी युद्ध में विजय प्राप्त कर सके, वैसे ही जो साधुवर्ग या श्रावकवर्ग समाधिपूर्वक मरण की साधना-आराधना के लिए पहले से ही कषाय-संलेखना और शरीर-संलेखना के · लिए तद्-योग्य त्याग, तप, प्रत्याख्यान, व्रत-नियम, कायोत्सर्ग आदि का नित्य अभ्यास करता है, गुरुजनों से प्रशिक्षण लेता है, भेदविज्ञान का भी अभ्यास करता है, ताकि मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि पर पूर्ण नियंत्रण करके आत्म-भाव में, स्व-स्वरूप में रमण कर सके, मोक्ष के उद्देश्य से आत्म-शुद्धि तथा तपश्चरणादि
१. (क) देखें - ' रायप्पसेणी सुत्तं' में प्रदेशी राजा का जीवन-वृत्त
(ख) देखें - भगवतीसूत्र, श. १५ में मंखली - पुत्र गोशालक का जीवन-वृत्त
(ग) आराद्धोऽपि चिरं धर्मो, विराद्धो मरणे सुधा ।
स त्वाराद्धस्तत्क्षणेऽहः क्षिपत्यपि चिरार्जितम् ॥ (घ) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६२२, ६२०, ६३७
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
- सागार धर्मामृत, गा. १६
www.jainelibrary.org