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मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण 8 ३८७ ®
म्व-भावों में, निज-गुणों में रमण करता हुआ संसार-सागर को पार कर जाता है, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है, अथवा उच्च देवलोक को प्राप्त करके अगले भव में मनुष्य-जन्म पाकर सिद्ध-वुद्ध-मुक्त परमात्मा बन जाता है, जन्म-मरण से सदा के लिए विमुक्त हो जाता है। अतः समाधिमरण प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्ति को मृत्यु का विभिन्न पहलुओं से अध्ययन, मनन और मन्थन करना आवश्यक है। उसे मृत्यु का स्पष्ट दर्शन होना चाहिए।
__ मृत्यु के प्रकार, निमित्त और समाधि-असमाधिपूर्वक मरण समाधिमरण-साधक को मृत्यु के मुख्य प्रकार तथा मृत्यु किन-किन निमित्तों को लेकर होती है ? यह जानना आवश्यक है। ‘भगवतीसूत्र' में मरण के मुख्यतया पाँच प्रकार बताए गए हैं-(१.) आवीचिकमरण (वीचि से तरंग के समान प्रतिसमय भोगे जाते हुए आयुष्यकर्मदलिकों के उदय के साथ-साथ क्षय रूप अवस्था का चालू रहना), (२) अवधिमरण (अवधि = मर्यादासहित मरण यानी नरकादि भवों के कारणभूत वर्तमान आयुकर्मदलिकों को भोगकर जीव एक बार मर जाए तदनन्तर यदि पुनः उन्हीं आयुकर्मदलिकों को भोगकर मृत्यु प्राप्त करें तो पुनर्ग्रहण की अवधि तक जीव का मृत रहना अविधमरण है), (३) आत्यन्तिकमरण (नरकादि आयुष्यकर्म के रूप में जिनदलिकों को एक बार भोगकर जीव मर जाए, पुनः कदापि उनको भोगकर न मरना अत्यन्त रूप से मरना), (४) बालमरण (अविरत = व्रतादिरहित प्राणियों का मरण), और (५) पण्डितमरण (सर्वविरत साधु-साध्वी का मरण)।' __ मृत्यु होने के बाह्य कारण तो सर्वविदित हैं-शारीरिक व्याधि, मानसिक आधि (व्यथा, उद्विग्नता, तनाव, पीड़ा आदि) से, अकस्मात् (दुर्घटना = एक्सीडेंट) से, उपसर्ग (देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत उपसर्ग = उपद्रव या कष्ट प्रदान) से और आयुष्य पूर्ण होने पर सहजभाव से तथा स्वेच्छा से।
व्याधि के निमित्त से मरण और समाधिभाव कैसे और कैसे नहीं ? शारीरिक व्याधि अनेक प्रकार की होती है। कई व्याधियाँ ऐसी होती हैं, जिनके उत्पन्न होने पर तत्काल मृत्यु हो जाती है, जैसे-हाटफल, ब्रेन हेमरेज, दम घुटना आदि। कई रोई ऐसे दुःसाध्य होते हैं, जो कुछ लम्बे समय चलते हैं और अन्त में रोगी मरणशरण हो जाता है। जैसे-कैंसर, एड्स, टी. बी. (क्षयरोग), दमा, मधुमेह, किडनी का फेल हो जाना आदि। इन रोगों के चंगुल में फँसने पर एक दिन शरीर अवश्य छूट जाता है। वृद्धावस्था भी एक प्रकार की व्याधि है। बुढ़ापे में शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है, इन्द्रियों का बल घट जाता है, १. भगवतीसूत्र, श. १३, उ. ७, सू. २३
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