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मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ३८९
उपसर्ग से मृत्यु होने में निमित्त और समाधिपूर्वक मरण वरण
उपसर्ग से मृत्यु होने में देव, मनुष्य या संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव निमित्त बनते हैं। पूर्व-जन्म के या पूर्वकृत वैर के उदय से किसी के द्वारा प्राण-हरण करना है अथवा किसी कारणवश कष्ट देना अथवा विपत्तियों की बौछार करना उपसर्ग कहलाता है। ऐसे उपसर्ग ज्ञानी पर भी आ सकते हैं, अज्ञानी पर भी । भावी तीर्थंकर पर आने वाले उपसर्ग समभाव से सहे जाने के कारण प्रायः निष्फल हो जाते हैं। भावी केवलज्ञानी पर आए हुए उपसर्ग प्राणघातक हों या न हों, वे अन्तकृत्केवली बन जाते हैं। वे अपने कर्मों का फल समभाव से सहकर जन्म-मरण का समूल अन्त कर देते हैं। जैसे - गजसुकुमार मुनि पर सोमल द्वारा दिया हुआ उपसर्ग उनके प्राणों का घातक होने पर भी उनके द्वारा समाधिपूर्वक मृत्यु का स्वीकार होने से वह उनके लिए सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष का कारण बना।
देवकृत उपसर्ग के समय समभाव-समाधिभाव रखना कठिन
व्यन्तर जाति के देवी- देव द्वारा किया गया उपसर्ग मनुष्यों को भयभीत और आतंकित कर डालता है। ऐसे समय में मृत्यु के अवसर पर समभाव व समाधिभाव रखना बहुत ही कठिन होता है । जैसे- अर्हन्नक श्रावक को धर्म से विचलित करने के लिए एक व्यन्तरदेव ने कई तरह डराया धमकाया और मरणान्त कष्ट पहुँचाने का उपक्रम भी किया। उसके जहाज को भी उलटा दिया । किन्तु शान्ति और धैर्य से उस उपसर्ग को सहकर वह धर्म पर दृढ़ रहा । अतएव देव ने अपना उपसर्ग दूर किया।
मनुष्यकृत उपसर्ग के समय समाधिभाव रखना कितना कठिन, कितना आसान ?
मनुष्य के द्वारा मनुष्यों पर कहर बरसने वाला उपसर्ग भयंकर प्राणघातक होता है। लेकिन ऐसे उपसर्ग के समय भी ज्ञानी साधक समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करते हैं। श्रावस्ती से विहार करके स्कन्दककुमार मुनि अपने ५०० शिष्यों के सहित अपनी सहोदरी बहन पुरंदरयशा को प्रतिबोध देने हेतु कुम्भकटकपुर पहुँचे । वहाँ के राजा दण्डक का मंत्री पालक महापापी क्रूर तथा जैनधर्म का द्वेषी था । उसने जब सुना कि स्कन्दक मुनि आये हैं, तो राजा को भड़काकर पालक के राजा ने यथेच्छ करने की आज्ञा ले ली। उसने निर्दयतापूर्वक ५०० ही स्कन्दक शिष्यों को घाणी में पील दिया। परन्तु उन्होंने समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण किया। अन्त में स्कन्दक मुनि को भी पकड़कर कोल्हू में पील दिया, परन्तु वे समाधिस्थ न रह - सके। इसी प्रकार श्रावस्ती के राजकुमार स्कन्दक मुनि बनकर अपनी बहन सुनन्दा को दर्शन देने हेतु कुन्तीनगर गये। पारणे के दिन राजमहल के नीचे से गुजरे तब सहसा वहाँ के राजा पुरुषसिंह ने प्रकुपित होकर इनकी चमड़ी उतारने का आदेश
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