________________
३७४ ४ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
जीता रहूँगा तो संयम (धर्म) पालन करूँगा और मर जाऊँगा तो सद्गति में जाऊँगा।”
(१२) जैसे कोई व्यक्ति धनाढ्य बन जाता है तो छोटा घर छोड़कर बड़े घर ( बंगले ) में रहने जाता है; उसी प्रकार मेरा जीव ( आत्मा ) भी साधु-जीवन या श्रावक-जीवन में व्रत-नियमों से धर्म- धनाढ्य बनेगा तो अशुचिमय इस शरीरगृह को छोड़कर देव का दिव्य शरीररूपी बंगला प्राप्त करेगा / मिलेगा। परन्तु वहाँ तक पहुँचाने वाला तो समाधिमरण ही है।
(१३) जैसे वणिक् (व्यापारी ) मेहनत करके पहले माल संचित करता है, फिर उसकी सुरक्षा करता है और जब तेजी का रंग आता है, तब उस माल पर से ममत्व छोड़ देता है, उसे एकमुश्त बेच देता है, तभी वह कमाई करता है; वैसे ही हम सच्चे वणिक् बनकर अभी ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूपी माल संचित कर लें और जब मृत्युरूपी तेजी आए, तब उमंग- उत्साहपूर्वक इस शरीररूपी माल को बेच डालें तो कितनी कमाई होगी ?
(१४) दिवस, महीने या वर्षभर की कमाई ( मजदूरी) का फल सेठ देता हैं, तब जिंदगीभर किये हुए धर्म की मजदूरी का फल (समाधि) मरणरूपी सेठ ही देगा । इसलिए उसका आदर करो ।
(१५) जैसे कोई राजा दूसरे राजा को पकड़कर कैद में डाल देता है; तब कोई मित्र राजा सेनासहित आकर उक्त कारागारस्थ अपने मित्र राजा को कैद से छुड़ा देता है; वैसे ही चेतनरूपी राजा को कर्मरूपी राजा ने संसाररूपी जेल में बंद कर रखा है। ऐसी स्थिति में मरणरूपी मित्र रोगरूपी सैन्य से सुसज्जित होकर शरीररूपी कारागृह के दुःख से मुक्त कराने हेतु आता है। अतः उस (मृत्यु) को उपकारी मानकर समाधिपूर्वक उसका सहर्ष स्वागतं और आदर करो ।
(१६) अतीतकाल में जिन-जिन ने स्वर्ग ( उत्तम देवलोक ) या मोक्ष के सुख प्राप्त किये हैं, उन्होंने समाधिमरण के प्रताप से प्राप्त किये हैं। अतः हे सुखार्थी आत्मन् ! तुझे भी समाधिपूर्वक मरण प्राप्त करना उचित है।
(१७) कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर जैसी इच्छा की जाती है, वैसा फल मिलता है; वैसे ही मृत्यु एक प्रकार से कल्पवृक्ष है, मृत्यु के अवसर पर यदि शुद्ध स्वरूप की-शुद्ध धर्म की भावना रखी जाए तो उसके फलस्वरूप ऐसी अच्छी गति मिलती है कि जहाँ शुद्ध आत्म-धर्म के सभी सुयोग सुलभ होते हैं अथवा सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष गति मिलती है, जहाँ एकान्त अव्याबाध सुख मिलता है।
(१८) जिसमें मलमूत्र जैसी अपवित्र वस्तु झर रही हो, ऐसे अंशुचि से परिपूर्ण औदारिक शरीर के चक्कर से छुड़ाने वाला और अशरीरी सिद्ध अवस्था अथवा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org