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8 मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण * ३७१ 8
कोई भी आचरण नहीं करते। कदाचित् अपवादरूप में कोई आचरण व्रतनियम विरुद्ध करना पड़े तो उसकी शुद्धि वे आलोचना प्रायश्चित्त आदि द्वारा कर लेते हैं। शरीर के प्रति मोह-ममत्व का व्युत्सर्ग कर लेते हैं। "मरणान्त समय में ऐसे वहुश्रुत एवं शीलवान् साधक जीवनमरण में सम रहते हैं, इस कारण वे मृत्यु से संत्रस्त नहीं होते।"१
अज्ञानी जीव की अकाममरणीय दशा अकाममरण वाला अज्ञानी जीव मृत्यु के कल्पित भय से काँप उठता है। वह मृत्यु के समय अपने शरीर और शरीर से सम्बद्ध परिवार, धन, व्यवसाय, जमीन-जायदाद आदि के प्रति मोह-ममत्ववश अत्यन्त दुःखी होता है, विलाप करता है, आँसू बहाता है, रोता है। साथ ही उसकी उस मोहजनित वेदना को हवा देने के लिए उसके कुटुम्वीजन आदि बार-बार मोह-ममता में डुबाने वाली बातें याद दिलाते रहते हैं।
सकाममरणयुक्त पण्डितमरण का स्वरूप, महत्त्व और आराधक जहाँ जन्म हुआ, वहाँ मरण निश्चित है। इस जीने और मरने के बीच में जीवन है। जीवन यदि व्रतनियमादि धर्माचरण-तपश्चरण से युक्त हुआ हो तो मरण सुधरता है। ये सब न हों तो मरण बिगड़ता है। मरण को सुधारना और बिगाड़ना जीव के अपने हाथ में है। यदि एक भव का मरण सुधरता है तो अनेक भव सुधर जाते हैं और एक भव बिगड़ गया तो अनन्त नहीं तो अनेकानेक भव बिगड़ जाते हैं। विवशतापूर्वक, किसी प्रकार के धर्माचरण, आत्म-भाव एवं समाधिभाव के बिना मरण को अकाममरण या बालमरण कहते हैं। किन्तु जहाँ मृत्यु का समय निकट आने पर आत्म-भाव एवं समाधिभावपूर्वक स्वेच्छा से मृत्यु का वरण-संवरण किया जाता है, वहाँ सकाममरण होता है, इसे ही पण्डितमरण कहा गया है। पण्डितमरण मरण सुधारने की कला है। पण्डितमरण का महत्त्व बताते हुए कहा
गया है
_“सारं दंसण नाणं, सारं तव-नियम-संजम-सीलं।
सारं जिणवरधम्मं, सारं संलेहणाए पंडिय-मरणं॥" अर्थात् मानव-जीवन का सार है-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान। (इन दोनों का) सार है-सन्यक्तप, नियम, संयम और शील। सार है-जिनवरोक्त धर्म, (जीवन के अन्तिम समय में) सारभूत वस्तु है-संलेखनापूर्वक पण्डितमरण।
१. न संतसंति मरणंते सीलवंता बहुस्सुया।
-उत्तराध्ययन, अ. ५, गा. २९ २. 'श्रावकधर्म-दर्शन' (उपाध्याय पुष्कर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ६२८-६३० .
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