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ॐ १७० * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ
_ 'ज्ञानयोग' का अर्थ है-सम्यग्ज्ञान एवं विवेक तथा 'कर्मयोग' का मतलब हैसम्यक्चारित्र या आचार। शब्दों में कुछ अन्तर जरूर है। परन्तु व्यवहाग्नय की दृष्टि से तीनों के उद्देश्य में कोई खास अन्तर नहीं है। किन्तु मोक्षमार्ग के लक्षण में जैनदृष्टि से तीन तथ्यों को परखना जरूरी है-(१) भक्ति, ज्ञान और कर्म (दर्शन, ज्ञान, चारित्र) तीनों सम्यक् हों, मिथ्या नहीं; (२) तीनों में परम्पर समन्वय हो
और वे एक-दूसरे के पूरक हों; (३) उक्त तीनों आत्मलक्षा-ग्वलक्षी हो, पर-पदार्थलक्षी या परलक्षी न हों। अन्यथा, कोर्ग भक्ति, जो सम्यग्ज्ञानविहीनसम्यक् आचारविहीन या आत्म-शुद्धि-साधनाहीन, अनासक्तियुक्त कर्मविहीन हो, अंधी, वहरी और परमुखापेक्षी = पराश्रित (तथाकथित भगवान, ईश्वर या किसी देवी-देव के आश्रित) हो सकती है। देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति श्रद्धा (भक्ति) के नाम पर जहाँ देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता, धर्ममूढ़ता और शास्त्रमूढ़ता हो, वहाँ वह श्रद्धा-भक्ति सम्यक नहीं, मिथ्या है। ऐसी स्थिति में श्रद्धा भी आत्म-लक्षी न होकर केवल देवादि-आश्रित होने से परमुखापेक्षी या पराश्रित है। ऐसी श्रद्धा या भक्ति प्रायः गतानुगतिक, अन्ध-श्रद्धा अथवा ज्ञान या विवेक से हीन, कुल-परम्परागत या सम्प्रदाय-परम्परागत होती है। ऐसी अन्ध-श्रद्धा या मिथ्याश्रद्धा आत्म-शद्धिकारिणी (संवर-निर्जरारूप धर्माचरणी) न होकर कभी-कभी साम्प्रदायिक लोगों में परस्पर सिरफुटौव्वल का कारण बन जाती है। आध्यात्मिक जीवन के विकास के बदल ऐसी पंथवादी-सम्प्रदायवादी श्रद्धा कभी-कभी ईर्ष्या, पर-निन्दा, द्वेष, इंखिणी, द्रव्य-भावहिंसा, रोष, आवेश आदि पाप-स्थानकों (पापकर्मवन्ध) की कारण भी बन जाती है। दर्शन का एक अर्थ विश्वास भी है। संसार में अनन्त पदार्थ हैं, किस पर विश्वास किया जाए? अध्यात्मशास्त्र का कथन है-अपने आप (आत्मा) पर विश्वास करो। परन्तु आज अधिकांश लोग चेतन से, आत्म-गुणों से भिन्न जड़-पुद्गलों पर विश्वास करते हैं। उन्हीं के विषय में अधिकाधिक जानकारी या विचार करते हैं तथा अहिंसादि गुणों की वृद्धि करने के पुरुषार्थ के बदले हिंसा, झूठ, ठगी, भ्रष्टाचार आदि से भौतिक कामभोगादि साधनों, जमीन-जायदाद, सम्पत्ति आदि की वृद्धि करने में पुरुषार्थ करते हैं। इस आज्ञा से कि हमें अधिकाधिक सुख, शान्ति और सन्तोष मिलेगा। परन्तु इस अज्ञान, अन्ध-विश्वास और अनाचरण से अशान्ति ही बढ़ी। कुछ धर्मान्ध लोगों ने आत्म-लक्षिता तथा आत्मार्थिता छोड़कर अपने तथाकथित सम्प्रदाय, पंथ, वेशभूषा, क्रियाकाण्ड, सम्प्रदायगुरु और साम्प्रदायिक परम्पराओं पर ही एकमात्र विश्वास किया और उनसे भिन्न सम्प्रदायादि के प्रति द्वेप, ईर्ष्या, वैर-विरोध, निन्दा, घृणा की। कट्टरता
और जड़तावश अर्थहीन, युगबाह्य, राग-द्वेष-ईर्ष्या-निन्दावर्द्धक जड़ क्रियाकाण्डों से ही हमें मुक्ति मिलेगी, ऐसा अन्ध-विश्वास किया, उन सम्प्रदायादि के प्रति विश्वास के साथ-साथ अपने आत्म-कल्याण का, आत्म-निष्ठा या वीतरागता-वृद्धि का या
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